Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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४४-संप्रदानशक्तिः २०१

सुपात्रपणुं नथी. शुभभाव पोतामां राखवानी चेष्टा ते सुपात्रपणुं नथी. धर्मीने शुभभाव आवे पण एने तेनाथी कांई लेवा-देवा नथी. एने तो जे गुणना कार्यरूप रत्नत्रयनी निर्मळ अवस्था थाय तेनाथी ज लेवा-देवा छे.

भाई, आ स्त्री-पुरुष-नपुंसकना देह ते तारी चीज नथी. देहना आकार ए तो जड परमाणुनी चीज छे. इन्द्रियना आकार ते जड, माटीना आकार छे. ते आकार ताराथी थया नथी. अरे, शुभभावेय ताराथी थयो नथी. पर्यायबुद्धिथी विकार पर्यायमां ऊभो थाय छे. ते कांई तारा गुणनुं कार्य नथी. गुणनुं कार्य तो अभेद एक गुणी चैतन्यद्रव्यनी द्रष्टि करतां प्रगट थाय छे, ने विकारनो तेमां अभाव ज छे. अहा! ते गुणना कार्यरूप चैतन्यनी शुद्ध परिणति ते पोताथी देवामां आवतो भाव छे, ने ते समये तेने झीलनारी पात्रता ते पण पोताना भावरूप छे. कोईने थाय आ एकांत छे, पण आ सम्यक् एकांत छे. एकांत कही विरोध करीश मा, केमके ए तारो ज विरोध अने विराधना छे.

भाई, आ जैनदर्शन तो अंतरनी चीज छे. जैनदर्शन एटले शुं? जैनदर्शन एटले वीतरागदर्शन. राग लाभदायक छे ते मान्यता वीतरागदर्शन नथी, ए जैनधर्म नथी. जैनधर्म एटले वीतरागी पर्याय, ने ते पर्याय पोताथी देवामां आवतो भाव छे. आम दाता पर्याय पोते छे, ने ते पर्यायने लेवा योग्य पात्र पण पोते ज छे. जेने द्रव्यद्रष्टि थई तेनी आ वात छे. पर्यायद्रष्टि जीवने तो संप्रदानशक्ति अने शक्तिवाननी प्रतीति ज नथी. भाई! आ कांई वादविवादथी पार पडे एवुं नथी. आ तो अंतरमां डूबकी लगावी त्यां ज रमवानी चीज छे.

अहा! रागनी घणी मंदता होय, शुकल लेश्याना भाव होय, पण एनाथी धर्म न थाय. शुकल लेश्याना भाव करीने ते अनंत वार नवमी ग्रैवेयकनो देव थयो, पण एथी शुं? शुकल लेश्या अने शुकल ध्यान बन्ने जुदी जुदी चीज छे. शुकल लेश्या तो एने अनंत वार थई छे, ने ते अभविने पण थती होय छे, ज्यारे शुकल ध्यान तो आठमा गुणस्थाने श्रेणी चढनारा भावलिंगी संत महा मुनिवरने होय छे. शास्त्रमां एवो उल्लेख छे के जीवे मनुष्यना भव अनंत कर्या छे, ने तेनाथी असंख्य गुणा अनंतभव नरकना कर्या छे. मनुष्यना एक भव सामे असंख्य भव एणे नरकना कर्या छे. तथा नरकना भव करतां असंख्य गुणा अनंतभव एणे देवना कर्या छे. आ रीते ते शुभभावना फळमां अनंत वार देवमां गयो छे. कांई पापना फळमां देवना भव न मळे. आम अनंत वार जीवे शुभभाव अने शुकल लेश्याना भाव कर्या छे, ए शुकल लेश्याना भाव तो थया ने चाल्या गया. एनाथी जड परमाणु बंधाणां, पण एमां तने शुं आव्युं? तारी दशामां शुं मलिनता छूटीने निर्मळता आवी? भवना छेदनारा भाव शुं तने प्राप्त थया? न थया. एटले तो दोलतरामजीए कह्युं के-

मुनिव्रत धार अनंत बार, ग्रीवक उपजायो;
पै निज आतमज्ञान बिना सुख लेश न पायो.

अरे भाई, ए भवने छेदनारी शुद्ध परिणति तो स्वद्रव्यना आश्रयमां जवाथी थाय छे अने तेने अहीं पोताथी देवामां आवतो, ने तेना पात्रपणे पोताथी लेवामां आवतो भाव कह्यो छे. अहा! स्वद्रव्यनी द्रष्टि करे तेने आत्मा ज निर्मळ रत्नत्रयना भावोनो मोटो दातार थई परिणमे छे, ने आत्मा ज तेने झीलनारो महान पात्ररूपे थाय छे. माटे हे भाई! रागनी द्रष्टि छोडी, तारा द्रव्य सन्मुख द्रष्टि कर, तने ज्ञान, आनंद आदि अद्भुत निधाननां दान मळशे.

अहा! आ संप्रदानशक्तिमां स्वद्रव्य एवो निज शुद्धात्मा ज सुपात्रपणे नक्की कर्यो. शानो? के सम्यग्दर्शनथी मांडीने सिद्धपदनो. अहाहा...! ए सम्यग्दर्शनादिनो दातार पण आत्मा अने ते क्षणे तेना पात्र थईने लेनार पण आत्मा. अहा! दातारनुं आवुं सुपात्रदान! अहो! आत्मानां अतीन्द्रिय आनंदनां अलौकिक दान! आनाथी ऊंचुं जगतमां कोई दान नथी. धर्मीने चार दान कह्यां ए तो व्यवहारथी समजवा योग्य छे. समजाणुं कांई...?

भाई, तने व्यवहारनो-शुभभावनो पक्ष छे पण ए तो अज्ञानभाव छे. एनां दान न होय प्रभु! ए दान नहि, एनो आत्मा दातार नहि, ने एनुं सुपात्र पण आत्मा नहि. ए तो पर्यायमां अद्धरथी उत्पन्न थतो भाव छे, आत्मा तेनो मालिक ज नथी त्यां दान-दातार-पात्रनी स्थिति ज कयां रहे छे?

समयसारनी ११मी गाथाना भावार्थमां कह्युं छेः “प्राणीओने भेदरूप व्यवहारनो पक्ष तो अनादि काळथी ज छे. अने एनो उपदेश पण बहुधा सर्व प्राणीओ परस्पर करे छे. वळी जिनवाणीमां व्यवहारनो उपदेश शुद्धनयनो हस्तावलंब जाणी बहु कर्यो छे; पण एनुं फळ संसार ज छे” ल्यो, आ व्यवहारना पक्षनुं फळ! अहीं तो संसारने छेदवानी-मटाडवानी वात छे. व्यवहारभाव देवो-लेवो ते