२०४ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११
व्याकरणमां छ विभक्ति आवे छेः कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान अने अधिकरण. तेमां ध्रुवपणामयी अपादानशक्तिना कारणे अंदर चिद्रूपनी पर्यायमां प्राप्ति थाय छे; निर्मळ धर्मनी पर्याय अपादानशक्तिना कारणे प्रगटे छे; ते बाह्य निमित्तना कारणथी, कर्मना अभावना कारणथी, के व्यवहारना कारणथी प्रगट थाय छे एम नथी. बधी शक्तिमां आ अपादानशक्ति परम प्रधान छे, केमके एमां उपादान आवे छे, ध्रुव उपादान अने क्षणिक उपादान बन्ने तेमां समाय छे.
चिद्दविलासमां (पानुं ३४) कह्युं छेः “सामान्यताथी निर्विकल्प छे; विशेषताथी शिष्यने प्रतिबोध करवामां आवे त्यारे जेम जेम शिष्य, गुरुना प्रतिबोधवाथी गुणनुं स्वरूप जाणी जाणीने विशेष-भेदी थतो जाय तेम तेम ते शिष्यने आनंदना तरंग ऊठे, ते समये वस्तुनो निर्विकल्प आस्वाद करे. आ कारणे गुण-गुणीनो विचार योग्य छे. गुणना विशेषने (परिणाम) कह्या छे; आ परिणामथी ज उत्पादव्यय वडे वस्तुनी सिद्धि छे एम कहीए छीए.”
जुओ, वस्तु मतलब वस्तुना द्रव्य-गुण-पर्याय उपादानथी सिद्ध छे, अन्यथा सिद्ध नथी, निमित्त के व्यवहारथी सिद्ध नथी.
भाई, तारा गुणमां अने तारी पर्यायमां (उपादान) शक्तिनी ताकात छे तेनाथी ते निर्मळ कार्य प्रगट थाय छे; परना-निमित्तना कारणथी ते कार्य प्रगट थतुं नथी. परना ने व्यवहारना कारणथी कार्य थाय छे एम मानवुं ए तो मोटुं शल्य छे, मूढपणुं छे, पराधीन द्रष्टि छे. गुणने ध्रुव उपादान कह्युं छे, तेनी पर्यायने क्षणिक उपादान कह्युं छे. अहा! पं. श्री दीपचंदजीए सरस काम कर्युं छे. आचार्यदेवे शक्तिनी व्याख्या लखी छे तेना विशेष स्पष्टीकरण सहितनुं वर्णन श्री दीपचंदजी सिवाय बीजा कोईए खास कर्युं नथी. समयसार नाटकमां थोडुं छे, पण पंचसंग्रह अने चिद्विलासमां जेवुं स्पष्टीकरण छे एवुं बीजे नथी. तेमणे (श्री दीपचंदजीए) एम कह्युं छे के-सर्व शक्तिओमां आ अपादानशक्ति परम प्रधान छे.
भगवान आत्माना ध्रुव स्वभावमां द्रष्टि देवाथी, अपादानशक्तिना कारणथी क्षणिक पर्यायमां सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्र अने आनंदनी निर्मळ पर्यायो उत्पन्न थाय छे. बहु शास्त्र भण्यो माटे ज्ञाननी पर्याय प्रगट थाय छे एम नथी, तथा व्यवहार-चारित्र बहारमां छे माटे निश्चय अभेद रत्नत्रयरूप चारित्र प्रगटे छे एम पण नथी. परिणतिमां जे उत्पाद-व्यय थाय छे ते उपादानथी थाय छे. आव्युं ने के-वस्तु उपादानथी सिद्ध छे. निश्चयथी जे निर्मळ परिणति थई ते पोताना कारणथी उत्पन्न थई छे, ते ज तेनुं उपादान छे.
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी निर्मळ पर्याय पोताना कारणे स्वतंत्र प्रगट थाय छे; तेमां निमित्तनुं के बाह्य व्यवहारनुं कारणपणुं नथी, पोताना द्रव्य-गुण पण कारण नथी. आ वात चिद्विलासमां (पान ९प पर) आपी छे. “पर्यायनुं कारण पर्याय ज छे. गुण विना ज (अर्थात् गुणनी अपेक्षा वगर ज) पर्यायनी सत्ता पर्यायनुं कारण छे, पर्यायनुं सूक्ष्मत्व पर्यायनुं कारण छे, पर्यायनुं वीर्य पर्यायनुं कारण छे, पर्यायनुं प्रदेशत्व पर्यायनुं कारण छे.” अहा! आत्मामां त्रिकाळ ध्रुवपणे चारित्र गुण छे. तेनी वर्तमान जे निर्मळ वीतरागी पर्याय प्रगट थई ते तेनुं वर्तमान क्षणिक उपादान कारण छे. व्यवहार कारण नहि, ने द्रव्य-गुण पण कारण नहि. अहा! आवी वस्तुस्थिति जाणी जे विशेषने भेदी ध्रुवने अवलंबे छे तेने अंदर अनाकुळ आनंदना तरंग उठे छे, अंदरनो खजानो खुली जाय छे, ने पर्यायमां धनना (निर्मळ रत्नत्रयना) ढगला थाय छे. अहो! दिगंबर संतो अने गृहस्थ पंडितोए अद्भुत अलौकिक स्पष्टीकरण कर्युं छे. लोको माने न माने ए बीजी वात छे, पोतानी चीज आवी ज छे. आ तो अनादि परंपरानी उपदेश छे. श्री दीपचंदजी २०० वर्ष पहेलां भावदीपिकामां लखी गया छेः
अहा! आगमनी परंपरा प्रमाणेनी श्रद्धावाळा कोई देखाता नथी. यथार्थ श्रद्धावाळा कोई वक्ताय देखाता नथी. मुखथी आ वात कहीए तो कोई सांभळता नथी. माटे हुं लखी जाउं छुं के मार्ग आवो छे. ल्यो, आवी वात! समजाणुं कांई...?
सम्यग्दर्शन आदि जे पर्याय प्रगट थई तेना प्रदेश भिन्न छे. जरीक सूक्ष्म वात छे. असंख्य प्रदेशोमां पर्यायना प्रदेशो भिन्न छे, ध्रुवना प्रदेशो भिन्न छे. जेटला क्षेत्रमांथी निर्मळ पर्याय उठे छे एटला प्रदेश भिन्न गणवामां आव्या छे. पर्यायनुं कारण पर्यायना प्रदेश छे, पर्यायनी उत्पत्तिमां ध्रुवनुं क्षेत्र कारण नथी. पर्यायनुं क्षेत्र पर्यायनुं कारण छे. उत्पादव्ययथी पर्याय आलिंगित छे, माटे उत्पाद-व्यय पर्यायनुं कारण छे, ध्रुव नहि.