२०८ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ गुण-स्वभाव छे. आम अन्य कोई आत्माना निर्मळ भावोनुं अधिकरण नथी.
सम्यक् मति-श्रुतज्ञाननी पर्याय ते भाव्यमान भाव छे. तेनो आधार आत्मस्थित ज्ञानगुण छे, ज्ञानगुणनुं ते भाव्य छे. जुओ, बहारमां इन्द्रियो, के शास्त्रना के अन्य निमित्तना आधारे ज्ञाननी पर्याय उत्पन्न थई नथी, केमके ज्ञान जुदुं ने इन्द्रियो जुदी छे, ज्ञान जुदुं अने शास्त्र आदि निमित्त जुदुं छे; ज्ञाननी पर्याय तेमनुं भाव्य नथी; परस्पर आधार-आधेयपणुं बनतुं ज नथी. ज्ञानगुण ज ज्ञाननी पर्यायनो आधार छे, केमके अधिकरण गुण आत्माना ज्ञानगुणमां पण व्यापक छे; ज्ञानगुणमां अधिकरण नामनुं रूप छे. समजाय छे कांई...?
तेवी रीते सम्यग्दर्शननी पर्याय श्रद्धा गुणना आधारे उत्पन्न थाय छे. भगवान आत्मामां श्रद्धा गुण त्रिकाळ छे. जो के श्रद्धा गुणनुं वर्णन आ ४७ शक्तिमां अलगथी आवतुं नथी, सुखशक्तिना वर्णनमां तेने समावी दीधुं छे. अहा! ते श्रद्धा गुणना आधारे समकितनी निर्मळ पर्याय प्रगट थाय छे, कांई देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धाथी के नव तत्त्वनी भेदरूप श्रद्धाथी शुद्ध सम्यग्दर्शननी पर्याय उत्पन्न थती नथी. अहो! दिगंबर संतोए-मुनिवरोए जगतने केवळज्ञाननी प्राप्तिनो मार्ग बताव्यो छे.
भगवान! तुं ज्ञानानंदरूप चैतन्यलक्ष्मीनो भंडार छो. तेमां जे सम्यग्दर्शननी पर्यायरूपी रत्न उत्पन्न थाय छे ते कोना आधारथी प्रगट थाय छे? शुं तेनो आधार व्यवहार रत्नत्रय छे? ना, व्यवहार रत्नत्रय तेनो आधार नथी. तो शुं देव-गुरु-शास्त्र तेनो आधार छे? तो कहे छे-ना, व्यवहार रत्नत्रय तेनो आधार नथी. ए तो बधी बहारमां भिन्न चीज छे, ते आधार नथी. गजब वात छे, बहारमां अत्यारे मोटी गरबड चाले छे. वास्तवमां अंदर श्रद्धा गुण त्रिकाळ छे तेना आधारे सम्यग्दर्शननी निर्मळ पर्याय थाय छे.
तेवी रीते आत्मामां जे आस्रव रहित संवरनी वीतरागी चारित्रनी पर्याय प्रगट थाय छे तेनो आधार कोण? शुं सराग समकित अने पंचमहाव्रतना व्यवहारना परिणाम ते तेनो आधार छे? तो कहे छे-ना, व्यवहारना- क्रियाकांडना कोई परिणाम निश्चय चारित्र प्रगट थाय तेनो आधार नथी. अहा! अंदर आत्मामां चारित्र गुण त्रिकाळ छे तेना आधारे स्वरूपनी रमणतामय एवी वीतरागी चारित्रनी दशा प्रगट थाय छे. प्रभु! तारी चारित्रदशा परथी अने रागथी निरपेक्ष प्रगट थाय छे. मोक्षनो मार्ग परम निरपेक्ष छे, तेने बहारना कोई आधारनी जरूरत नथी. अहा! पोते ज पोतानी वीतरागी चारित्रनी पर्यायनुं अधिकरण छे, एटले जेने मोक्षमार्ग जोईए छे तेणे द्रव्य-त्रिकाळी आत्मद्रव्यनी द्रष्टि करवी जोईए. भाई, आ द्रव्यद्रष्टि ए ज वीतरागनो मार्ग छे अने ते अलौकिक छे, एनां फळ पण अलौकिक छे. अहाहा...! अनंत ज्ञान-केवळज्ञान ने अनंत सुख प्रगटे अने ते सादि-अनंतकाळ रहे ते एनुं फळ छे. सिद्ध पर्याय प्रगटे ते सादि-अनंतकाळ रहे छे; ओहो! एकला अतीन्द्रिय सुखनो, पूर्ण सुखनो अने अनंत सुखनो त्यां भोगवटो होय छे. अहा! आवी अलौकिक दशा थवाना कारणनो आधार अंदर आधारनी जेनी शक्ति छे एवो भगवान आत्मा छे; आ सिवाय बहारमां कोई आधार नथी, शरीरेय नहि, इन्द्रियेय नहि, देव-गुरु-शास्त्र पण नहि, ने व्यवहारेय नहि. समजाणुं कांई...?
अरे! संसारी जीवोने अनादिकाळथी रागनी रुचि छे, ने तेने उपदेशक पण एवा ज मळी जाय छे. उपदेशक पण दया, दान, व्रत आदिना शुभरागथी धर्म थवानुं बतावे छे. ल्यो, ‘जसलो जोगी अने माली मकवाणी’ -बेयनो मेळ खाई गयो. पण ए तो बन्नेय चारगतिमां रझळशे. हिंसादि अशुभरागना भाव तो महापापना भाव छे, अधर्म छे, पण अहिंसादि शुभरागनो अनुभव पण धर्म नथी, अधर्म छे एम अहीं कहे छे; ते भावना आधारे आत्मानी मोक्षमार्गनी पर्याय थती नथी. तेनाथी धर्म थवानुं माने ए तो मिथ्यात्वरूप महाशल्य छे.
कोई वळी कहे छे-आत्मस्वभावना आधारेय धर्म थाय, ने व्यवहारना ने निमित्तना आधारेय धर्म थाय- एम मानो तो अनेकान्त छे. पण एम नथी भाई! व्यवहार-रागना आधारे वीतरागता-धर्म थाय ए तारी मान्यता अंधाराना आधारे अजवाळुं थाय एना जेवी मिथ्या छे, केमके धर्म तो वीतरागता स्वरूप छे. वळी निमित्त छे ते परवस्तु छे, ने परवस्तु स्वद्रव्यमां शुं करे? कांई ज न करे. अडे नहि ते शुं करे? आ रीते आत्मस्वभावना आधारेय धर्म थाय ने व्यवहारना-रागना आधारे ने निमित्तना आधारेय धर्म थाय एवी तारी मान्यता भ्रम छे; ए अनेकान्त पण नथी, वास्तवमां आत्मस्वभावना आधारे ज धर्म थाय, ने व्यवहार ने निमित्तना आधारे धर्म न थाय ए मान्यता सत्यार्थ अनेकान्त स्वरूप छे. आत्माना अनंत गुणनो आधार-अधिकरण आत्मा ज छे, केमके आत्मानो अधिकरण गुण-स्वभाव छे. दरेक गुणमां अधिकरण गुण व्यापक छे, दरेक गुणमां तेनुं रूप छे. तेथी दरेक गुण पोताना आधारे पोतानी निर्मळ