पर्याय प्रगट करे छे. सम्यग्ज्ञान अने केवळज्ञाननी पर्याय आत्माना ज्ञानस्वभावना आधारे ज प्रगट थाय छे. केवळज्ञाननी पर्याय थई ते तेना पूर्वना चार ज्ञाननी पर्यायना व्ययना आधारे थई छे एम ज्यां नथी त्यां हवे व्यवहार अने निमित्तना आधारे थाय ए वात ज कयां रहे छे? आ लोजिकथी-न्यायथी तो वात छे. त्रण लोकना नाथनो मार्ग न्यायथी सिद्ध छे. ‘न्याय’ शब्दमां ‘नो’-‘नय्’-दोरी जवुं-एटले के जेवी वस्तु छे तेने तेवी जाणवारूपे ज्ञानने स्वरूपमां दोरी जवुं-लई जवुं ते न्याय छे. ओहोहो...! आ तो धन्यभाग्य होय तेने वीतरागनी वाणी सांभळवा मळे.
बहेननां ‘वचनामृत’ वांचीने एक मुमुक्षु भाई बोली ऊठेला-‘आ तो जैननी गीता छे.’ वात साची छे. जैनना एटले वीतरागतानां गाणां गाय ते गीता छे. आत्माना गुणनां गाणां ते गीता छे. अहाहा...! अनंत गुणरत्नाकर प्रभु आत्मा छे. तेनां आ गाणां छे; पर्यायनां के रागनां आ गाणां नथी. बीजाना आधारे तुं पोतानी पर्याय थवानुं माने पण एवी वस्तुस्थिति नथी. बीजाने आधार माननारो पोताना अनंत गुण-स्वभावनो अनादर करे छे. व्यवहारना रसियाने आ आकरुं लागे, एकांत जेवुं लागे, पण शुं थाय? एनुं चित्त एकान्त-ग्रहथी ग्रसित छे.
समयसारनी ८३मी गाथामां समुद्रनुं द्रष्टांत आप्युं छे. दरियामां तरंग ऊठे छे ते पवनना कारणे नहि; पर्यायनो एवो स्वभाव छे के तरंग पोताना कारणे पोताथी ऊठे छे, ने ते तरंग समाईने दरियामां चाल्या जाय छे. तेवी रीते धजा फरफरे छे ते पवनना कारणे नहि, पण तेनामां क्रियावती शक्ति पडी छे तेना कारणे धजानुं फरफरवापणे परिणमन थाय छे. आवो पर्यायनो स्वभाव छे. त्यारे कोई भाईए प्रश्न करेलोः
प्रश्नः– एम के पाणी उष्ण थाय छे ते अग्निथी थाय छे एम प्रत्यक्ष देखाय छे ने तमे केम ना पाडो छो? उत्तरः– पाणीनी ठंडी अवस्था बदलीने उष्ण अवस्था थाय ए तो पाणीनी पर्यायनो स्वभाव छे. अग्नि निमित्त हो, पण अग्नि तो परवस्तु छे, अग्निना रजकणो पाणीने अडता सुद्धां नथी.
आचार्य श्री कुंदकुंददेवे समयसारनी गाथा ३७२मां कह्युं छे के-घडो माटीमांथी उत्पन्न थाय छे एम अमे देखीए छीए, कुंभारथी घडो थाय छे एम अमे देखता नथी. घडानी पर्यायनी कर्ता माटी छे, ने माटी ज घडानुं करण अने अधिकरण छे. माटीनी घडारूप पर्याय कुंभारथी, दंडथी के चक्रथी थई छे एम छे ज नहि, अहा! द्रव्यनी स्वतंत्रता तो जुओ!
आत्मामां एक प्रभुताशक्ति छे. ए त्रिकाळ प्रभुतामांथी वर्तमान प्रभुता आवे छे. प्रथम पर्यायमां पामरता हती ते व्यय थईने प्रभुता प्रगटी. ते प्रभुता कांई पूर्व पर्यायना व्ययना आधारे प्रगटी छे एम नथी. त्रिकाळ प्रभुताना आधारे प्रभुता प्रगटी छे. आ प्रभुताशक्ति प्रत्येक गुणमां व्यापक छे. प्रत्येक गुणमां प्रभुतानुं रूप छे. ते कारणथी सम्यक्त्वादि निर्मळ पर्यायो गुणनी प्रभुताना आधारे प्रगट थाय छे. शक्तिवानना आश्रये शक्ति छे, तो तेनी पर्याय पण शक्तिवानना आश्रय-आधार विना केम होय? मांड प्रभु! आवो अवसर मळ्यो छे, तो स्वभावथी भरेला भगवानना शरणे जा, तेनो आश्रय ले; तुं न्याल थई जईश, तने शांति ने अनाकुळ आनंदनी प्राप्ति थशे. आ सिवाय लाख-क्रोड उपाय बधा मिथ्या छे.
समयसारनी बीजी गाथामां आवे छे के- ‘जीवो चरित्तदंसणणाणट्ठिदो...’ ल्यो, आमांथी आचार्यदेवे जीवत्वशक्ति काढी छे. रागमां स्थित हतो, ते निज ज्ञान, दर्शन, चारित्रमां स्थित थयो ते जीव छे. ते स्थित थवानी शक्ति अधिकरण गुण वडे आत्मानी ज छे. अहा! तेने आत्मानो ज आधार छे. आत्मानी अधिकरणशक्ति अबंधस्वरूप छे, ते सहज पारिणामिकभावे छे. तेना आश्रयथी भाव्यमान भाव ते उपशम, क्षयोपशम अने क्षायिकभावरूप छे, अने ते आत्माना आधारे ज प्रगट थाय छे. स्वभावने आधार बनाव्या विना, एकला व्यवहार रत्नत्रयना जे परिणाम छे ते बंधननुं कारण छे, ने तेना आधारे अबंधना कारणरूप परिणाम उत्पन्न थाय एम कदी बनतुं नथी.
अहा! धर्मी पुरुष जाणे छे के-अमने अमारा चिदानंद भगवाननो ज आधार छे. महेलमां हो के जंगलमां, पोतानो आत्मा ज पोतानो आधार छे एम धर्मात्मा जाणे छे. जुओ, सीताजी धर्मात्मा हतां. ज्यारे लव अने कुश जेवा चरम-शरीरी पुत्रो तेमनी कूंखे आव्या तो तेमने सम्मेदशिखर आदि तीर्थोनी वंदनानो भाव थई आव्यो. बराबर ते ज वखते लोकोए आवीने रामचंद्रजीने लोकापवादनी वात कही. तेथी रामचंद्रजीए सेनापतिने बोलावी सीताजीने तीर्थोनी वंदना करावी, पछी सिंहनाद नामना भयानक वनमां तेमने छोडी देवानी आज्ञा करी.
सीताजीए बहु आनंदथी ने भक्तिथी तीर्थवंदना करी, ने पछी ज्यां सिंहनाद वन आव्युं त्यां रथ ऊभो राखीने