२१०ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ सेनापति रडवा लाग्यो. सीताजी कहे-अरे, आ शुं थयुं? सेनापतिजी, तीर्थवंदनाना आनंदना प्रसंगे आप आम केम रडो छो? सेनापति रडतां रडतां कहे-माताजी, जेम मुनिवरो राग परिणतिने छोडे तेम श्रीरामे लोकापवादना भयथी तमने आ जंगलमां एकलां छोडी देवानी आज्ञा करी छे. सेनापतिना आ शब्दो सांभळीने सीताजी बेचेन-बेबाकळां थई मूर्च्छित थयां. पछी होशमां आव्यां तो रामचंद्रजीने संदेशो कहेवडाव्यो के-“हे सेनापति! मारा रामने कहेजे के लोकापवादना भयथी मने तो छोडी, पण जिनधर्मने न छोडशो. अज्ञानी लोको जिनधर्मनी निंदा करे तो ते निंदाना भयथी सम्यग्दर्शनने कदी न छोडशो...” जुओ आ धर्मात्मानी अंतर-परिणति! धर्मना आधारभूत स्वभाव अंतरमां भाव्यो छे तो संदेशामां कहे छे-स्वभावना आधारे प्रगट सम्यग्दर्शनने लोकनिंदाना भयथी मा छोडशो. अहाहा...! धर्मनो आधार एवा निज चिन्मात्र चिदानंद प्रभुने द्रष्टिमां राख्यो छे तो भयानक वनमां पण सीताजी भयभीत नथी. रामनो भले वियोग हो, पण अंदर आतमराम छे ते हाजराहजूर छे. सीताजीना ज्ञान-श्रद्धानमां निज आतमरामनो आधार निरंतर वर्त्या ज करे छे. अहा! आतमरामनुं शरण मळ्युं ते अशरण नथी. ते तो वनमां पण पोताना आत्माना आधारे निःशंक अने निर्भय जीवन जीवे छे, दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय जीवन जीवे छे. समजाणुं कांई...?
अहाहा...! आत्मामां एक जीवत्वशक्ति त्रिकाळ छे. तेनुं कार्य शुं? ज्ञान, दर्शन, आनंद, सत्ता-एवा भावप्राणरूप जीवननुं कार्य एमां थाय छे. आत्माना आधारे प्रगट भावप्राण ते आत्मानुं जीवन छे. शरीरथी जीववुं ए जीवन नथी. ‘जीवो ने जीववा दो’ एम सूत्र बोले छे ने! पण ए जिनसूत्र-जिनवाणी नथी. जे दर्शन-ज्ञान- चारित्रमां स्थित थई रह्यो छे ते धर्मात्मानुं जीवन छे, ते स्वसमय छे. रागथी जीववुं, देहथी जीववुं, अशुद्ध प्राणथी जीववुं ते आत्मजीवन नथी, वास्तवमां ए तो आत्म-घात छे. आ दस द्रव्यप्राण छे ए तो जड छे. तेना आधारे जीव जीवतो नथी. शुं कहीए? वाते वाते फेर छे!
एक लाखे तो ना मळे, एक त्रांबियाना तेर.
परमात्मा कहे छे-तारे ने मारे वाते वाते फेर छे, तारी द्रष्टि ऊंधी छे माटे कोई वाते मेळ खातो नथी.
अहा! भाव्यमान भावनो आधार थाय तेवी आत्मानी निज शक्ति छे. जेम निरालंबी आकाशने अन्य कोई आधार नथी, तेम निरालंबी चैतन्य प्रभुने बीजो कोई आधार नथी. चैतन्यना भावोने निज चैतन्य प्रभुनो एकनो ज आधार छे, एवी ज आत्मानी अधिकरणशक्ति छे. गजब वात छे भाई! पोताना शुद्ध चैतन्यनो आधार चूकीने जेओ बहारमां पोतानो आधार शोधे छे ते बहिद्रष्टि जीवो बहारमां भले मोटा शेठ होय तोय तेओ रांका- भिखारा ज छे, केमके बीजा पासेथी तेओ पोताना ज्ञान ने आनंदनी भीख मागे छे. अने समकितीने बहारमां कदाच दरिद्रता होय तोय शुं? ‘मारा सुखनो आधार हुं ज छुं, मारे कोई बीजानी जरूर नथी’-एवी स्वभावद्रष्टि वडे ते निरंतर अनाकुळ अतीन्द्रिय सुखनो भोगवनारो थाय छे.
जुओ, केवळज्ञान भाव्यमान भाव छे, तेना आधारपणामय आत्मानी अधिकरणशक्ति छे. अहाहा...! सर्वज्ञत्व अने सर्वदर्शित्व प्रगटयुं तेनो आधार कोण? शुं वज्रवृषभनाराच संहनन होय ते तेनो आधार छे? ना, ते आधार नथी. देहनुं अधिकरण आत्मा, ने आत्मानुं अधिकरण देह-एम नथी. केवळज्ञाननुं अधिकरण वज्र शरीर नथी. जो ते शरीर केवळज्ञाननो आधार होय तो शरीर विना केवळज्ञान रही केम शके? पण भगवान सिद्धने सदाय केवळज्ञान आदि वर्ते छे, ने शरीर वर्ततुं नथी. माटे शरीर केवळज्ञाननो आधार नथी, आत्मा ज एक केवळज्ञाननो आधार छे. वज्रवृषभनाराच संहनन होतां केवळज्ञान प्रगट थाय छे एम कह्युं होय ते व्यवहारनयनुं कथन उपचारमात्र जाणवुं. (भिन्न आधारनी बुद्धि छोडी स्वद्रव्यना आश्रयमां रहेवुं.)
अहा! एकेक पर्यायमां षट्कारक छे. अधिकरणशक्ति प्रगट थई ते षट्कारकथी प्रगट थई छे. कारको अनुसार थवापणारूप जे भाव ते-मयी क्रियाशक्तिनी वात आवी गई छे. अहो! आ तो अलौकिक मंत्रो छे. आ वात संप्रदायमां कयांय छे नहि. दिगंबरमां छे, पण एनो अर्थ करवामां गोटा उठाव्या छे. पण अहो! वीतरागी मुनिवरोए रामबाण मार्यां छे. अधिकरण जेनो गुण छे एवा आत्माने उपादेय करतां गुणनुं परिणमन थाय छे, भेगुं अनंता गुणनुं परिणमन थाय छे. आ धर्म ने आ मोक्षमार्ग छे, अने एनुं फळ मोक्ष छे. माटे हे भाई! रागने हेय जाणी तुं निज स्वभावने उपादेय कर, तेथी वीतरागता ने सुख प्रगट थशे, केमके आत्मस्वभाव ज तेनुं अधिकरण छे.
आ प्रमाणे अहीं अधिकरणशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.