‘स्वभावमात्र स्व-स्वामित्वमयी संबंधशक्ति. (पोतानो भाव पोतानुं स्व अने पोते तेनो स्वामी-एवा संबंधमयी संबंधशक्ति).
जुओ, आ शक्तिनो अधिकार छे. शक्ति एटले गुण. भगवान आत्मामां अनंत गुण छे. आ अनंत गुण- प्रत्येक भिन्न होवा छतां एकेक गुणनुं बीजा अनंतमां रूप छे. तेमां एक शक्ति एवी छे के पोते आत्मा स्वसंवेदन- प्रत्यक्ष थाय. पोतानुं ज्ञान अने पोतानो आनंद स्वसंवेदनमां प्रत्यक्ष थाय एवो तेनो प्रकाश स्वभाव छे. तेमां अधिकरण गुणनुं रूप छे ते कारणथी ते शक्ति परना आधार विना पोताना ज आधारे पोतानुं स्वसंवेदन प्रत्यक्ष करे छे. ते पोतानी स्वयंसिद्ध दशा छे. व्यवहार रत्नत्रयना कारणे स्वसंवेदन थाय छे एम नथी.
‘सर्व गुणांश ते सम्यक्त्व’ ए श्रीमद्नुं वचन छे. रहस्यपूर्ण चिठ्ठीमां पण आ वात आवी छे. चोथे गुणस्थाने ज्ञानादि गुणोनो एकदेश व्यक्त थाय छे. श्रद्धा गुणनी सम्यग्दर्शनरूप पर्याय व्यक्त थाय छे तेनी साथे ज्ञान गुणनी मति-श्रुतरूप सम्यग्ज्ञाननी पर्याय प्रगट थाय छे, चारित्र गुणनी स्वरूपाचरणनी पर्याय प्रगट थाय छे. पांचमे, छठ्ठे गुणस्थाने विशेष चारित्र होय छे ते अहीं नथी, पण चारित्रनो अंश चोथाथी शरु थाय छे. आवी वस्तुस्थिति छे. पहेलां एनी यथार्थ समजण करवी जोईए, विना समजण प्रयोग केवी रीते थाय? अंतर्मुख थवानो प्रयोग करता पहेलां यथार्थ समजण होय छे, पछी एकाग्रतारूप ध्यान द्वारा स्वानुभव प्रगट थाय छे. अहा! यथार्थ समजण करी अनंतगुणनो भंडार एवा आत्मानो ज्यां आश्रय ले छे त्यां चोथा गुणस्थाने सम्यग्दर्शन सहित सर्व गुणनो अंश प्रगट थाय छे.
अहाहा...! अभेद एक ज्ञायकभाव स्वरूप प्रभु आत्मा छे. ते सम्यग्दर्शननो विषय अने ध्येय छे. ते ध्येयनी द्रष्टि-अंतर्मुख द्रष्टि करतां सम्यग्दर्शनरूप पर्यायनी व्यक्तता थाय छे. आ मूळ चीज छे, एने बदले ‘संयम लो, संयम लो’-एम केटलाक पत्रोमां लखाण आवे छे. पण अरे भाई, संयम कोने कहेवाय? सम्यग्दर्शन शुं चीज छे एनी खबर विना संयम आव्यो कयांथी? मार्ग जुदो छे बापा! अनंत शक्तिनो पिंड शक्तिवान द्रव्य अभेद एक छे तेनी द्रष्टि करवाथी समकित सहित अनंत शक्तिनो व्यक्त अंश पर्यायमां प्रगट थाय छे. अहा! जेम पाणीनो घडो भर्यो होय ने छलकाय तेम ज्ञानमात्रभावनी अंदर अनंत शक्तिओनुं ऊछळवुं थाय छे एनुं नाम समकित छे. भाई, आवा समकित विना व्रतादि कांई ज नथी. ए तो थोथां छे थोथां भगवान!
आ समयसारमां शक्तिनुं वर्णन द्रष्टिनी प्रधानताथी छे. प्रवचनसारमां जे ४७ नयनुं वर्णन छे ते ज्ञाननी प्रधानताथी छे. शक्ति ४७, नय ४७, भैया भगवतीदास रचित निमित्त-उपादानना दोहा ४७, अने चार घातिकर्मनी प्रकृति पण ४७ छे. आ ४७ शक्तिनुं स्वरूप यथार्थताथी समजे तेने ४७ प्रकृतिनो नाश थाय छे. कर्मप्रकृतिनो नाश कहेवो ए तो व्यवहार छे, वास्तवमां तेने अनंतज्ञानादि प्रगट थाय छे.
अहा! आचार्य अमृतचंद्रस्वामीए ४७ शक्तिनुं आमां अजब वर्णन कर्युं छे. जीवत्वशक्तिथी शरू कर्युं छे. शक्तिनी आवी वात श्वेतांबर आदि बीजे कयांय नथी. आ तो केवळज्ञाननी केडीए चालनारा संतोए अमृत पीरस्यां छे. भगवाननी दिव्यध्वनिनो आ सार छे. अत्यारे छेल्ली संबंधशक्तिनुं वर्णन चाले छे. कहे छे- ‘स्वभावमात्र स्व-स्वामित्वमयी संबंधशक्ति छे’. ज्ञान, दर्शन, आनंद आदि अनंत गुण अने तेनुं भवन नाम परिणमन ते स्वभावमात्र स्ववस्तु छे; केमके आ स्वभाव छे एम तेनी परिणतिमां भान थया विना आ स्वभाव छे ए वात कयांथी आवी? आम द्रव्य-गुण अने तेनी निर्मळ परिणति ते स्वभावमात्र स्व छे, अने तेना स्वामित्वमयी संबंधशक्ति छे.
अहाहा...! अनंतगुणरूपी स्वभावनुं स्वामित्व कयारे थाय? के ज्यारे पर्यायमां परिणमन थाय त्यारे आ स्व-स्वभावमय पोतानी पूर्ण वस्तु छे एम भान थयुं तो स्व-स्वामित्वमयी संबंधशक्तिनी पर्याय नो अंश प्रगट थाय छे. त्यारे द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां संबंधशक्तिनुं व्यापकपणुं थाय छे. अहीं ‘स्वभावमात्र स्व’ एम कह्युं छे एमां एकला त्रिकाळीनी वात नथी. त्रिकाळीनुं पर्यायमां भान थयुं तो त्रिकाळी द्रव्य, अनंत गुण अने तेनी निर्मळ निर्विकारी पर्याय-त्रणे स्वभावमात्र छे अने ए त्रणेमां स्व-स्वामित्वमयी संबंधशक्तिनुं व्यापकपणुं थाय छे.
भगवान आत्मा चैतन्य लक्षणे लक्षित छे. ज्ञाननी वर्तमान पर्याय स्वज्ञेयने जाणती प्रगट थई तेमां आ