१३४ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-२ रहीने जे उद्रयने जाणे छे ते मुनि जितमोह कहेवाय छे. इन्द्रियोनी एक्ता तूटी गई छे अने स्वभावनी एक्ता थई छे. तेथी ज्ञानीने ज्ञेय-ज्ञायक-संकरदोष नाश पाम्यो छे. पण हजु अस्थिरतामां कर्मनो उद्रय जे भावक छे ते तरफना झुकावथी विकाररूप भाव्य थाय छे. आ भाव्यभावक-संकरदोष छे. निश्चयथी आत्मा खरेखर विकारनो र्क्ता नथी. तेथी कर्मना उदयने भावक कही ते उदय विकाररूप भाव्य करनार छे तेम कह्युं छे. ते भाव्य- भावक संबंधने ज्ञानीए पोताना स्वभावनो आश्रय लईने हठावी दीधो. एटले के उद्रयने अनुसरीने तेने भाव्य जे विकार थतो हतो ते स्वभावनो आश्रय थतां थयो नहि. त्यारे तेने भाव्यभावकसंकरदोष दूर थयो. तेथी तेने परमार्थना जाणनाराओ जितमोह कहे छे.
आ गाथामां जे मोहकर्मनी वात छे ते चारित्रमोहनी वात छे. चारित्रमोहनो उद्रय आवे छे तेमां ज्ञानीने एक्ताबुद्धि थती नथी. परंतु जे अस्थिरता थाय छे ते कर्मने वश थतां थाय छे. ते विकारनुं-अस्थिरतानुं जे परिणमन छे तेनो र्क्ता ज्ञानी आत्मा छे. कारण के भाव्य थवाने लायक ज्ञानी आत्मा पण छे. प्रवचनसारमां ४७ नयमां एक र्क्तृनय आवे छे. तेमां कह्युं छे के जेम रंगरेज रंगने करे छे तेम धर्मात्मा (पण) रागरूपे परिणमे छे. माटे ते रागनो र्क्ता धर्मात्मा पोते छे. कर्मथी राग थाय छे के कर्म रागनो र्क्ता छे एम नथी. हवे कहे छे के जेणे पोतानी पर्यायने ज्ञायक तरफ झुकावीने निमित्त-भावकने आश्रये जे विकार थतो हतो तेने दूरथी छोडी दीधो-एटले के पहेलां विकार कर्यो अने पछी छोडी दीधो एम नहि, पण विकार थवा ज न दीधो तेने जितमोह कहे छे.
जड मोहकर्म फळ देवाना सामर्थ्यथी प्रगट उद्रयरूप थाय छे. फळ देवाना सामर्थ्यथी एटले अनुभागथी. अहीं जे कर्म सत्तामां पडयां छे तेनी वात नथी, पण उद्रयमां आव्यां छे एनी वात छे. उद्रयपणे जे कर्म प्रगट थाय छे ते भावक छे, अने विकारी थवाने लायक जे जीव छे तेने ए कर्मनो उद्रय निमित्त कहेवाय छे. कर्म भावक कोने थाय छे? के जे (जीव) कर्मने अनुसरीने विकार-भाव्य करे छे तेने ज कर्मनो उदय भावक कहेवाय छे अने ते जीवने भाव्य कहेवाय छे. भावक कर्मनो उदय तो जडमां आवे छे, परंतु तेना अनुसारे ज्यां सुधी प्रवृत्ति छे त्यां सुधी अस्थिरता थाय छे तथा भाव्यरूप विकार थाय छे. तेथी भाव्य-भावक बन्ने एक थाय छे. एक थाय छे एनो अर्थ एम छे के बन्नेनो निमित्त-नैमित्तिक संबंध थाय छे. समक्तिी छे ए जितेन्द्रिय जिन थयो छे, परंतु हजु भाव्यभावक-संकरदोष टाळवानो बाकी छे. चारित्र-मोहनो उद्रय आवे छे अने तेना अनुसारे प्रवृत्ति थवाथी भाव्य-विकारीदशा थाय छे. ज्ञानी ते विकारी भाव्यनो उपशम करे छे. ते बीजा प्रकारनी स्तुति छे.