गाथा ३२ ] [ १३७ तरफनो आदर छोडी दे छे. कर्मना विपाकनो अनादर करीने ते ज्ञानी अंदर भगवान ज्ञायक त्रिकाळीना आदरमां-आश्रयमां जाय छे. तेने भाव्य-भावकसंकरदोष दूर थाय छे. आ भगवान आत्मा पोते सर्वज्ञस्वभावी छे तेनी स्तुति छे. भाई! वस्तुस्थिति ज आवी छे. पोताना भावमां एनुं भासन थवुं जोईए. एम ने एम मानी ले ते काम आवे नहि. अहो! केवळीना अनुसारे आ अलौकिक टीका छे. ‘परमार्थ वचनिका’ मां श्री बनारसीदास कहे छे के- ‘आ चिठ्ठी (वचनिका) यथायोग्य सुमतिप्रमाण केवळीवचन अनुसार छे. जे जीव सांभळशे, समजशे अने श्रद्धशे तेने भाग्य अनुसार कल्याणकारी थशे.’ ज्यारे बनारसीदास आम कहे छे तो पछी संतोनी तो शुं वात?
कर्मना उदयना काळे तेने अनुसरीने जे विकारी दशा थाय ते दोष छे. जे मुनि मोहनो तिरस्कार करीने एटले के चारित्रमोहना उदयने अवगणीने, तेनुं अनुसरण छोडी निज ज्ञायकभावने अनुभवे छे ते निश्चयथी जितमोह जिन छे. आ बीजा प्रकारनी स्तुति पहेला प्रकारनी स्तुति करतां ऊंची स्तुति छे. ३१ मी गाथामां जघन्य, ३२ मी गाथामां मध्यम अने ३३ मी गाथामां उत्कृष्ट स्तुति कही छे.
जेटले अंशे परथी हठी स्व तरफ आवे छे तेटला अंशे भाव्यभावकसंकरदोष दूर थाय छे, भाव्यभावकनी एक्ता थती हती ते दूर थाय छे. आ दोष दूर थतां एकत्वमां टंकोत्कीर्ण (निश्चल) अने ज्ञानस्वभाव वडे अन्यद्रव्योना स्वभावोथी थता सर्व भावोथी परमार्थे जुदा एवा पोताना आत्माने ते मुनि अनुभवे छे. अहाहा! ‘णाणसहावाधियं’ एटले ज्ञानस्वभाव वडे अन्यद्रव्योना स्वभावोथी थता सर्वभावोथी परमार्थे भिन्न एवा पोताना आत्माने जे मुनि अनुभवे छे ते निश्चयथी जितमोह छे. तेणे मोहने जीत्यो छे पण हजु टाळ्यो नथी. मोहनो उपशम कर्यो छे पण क्षय कर्यो नथी. एटलो पुरुषार्थ हजु मंद छे.
मुनिने अने समकितीने द्रष्टिमां रागनो अभाव छे. तेथी कर्मना उद्रये राग थाय छे एम नथी. परंतु पर्यायमां राग थवानी लायकात छे तेथी भावक (कर्म) तरफनुं वलण थतां रागरूप भाव्य थाय छे. हवे मुनि, भावक जे मोहकर्म तेनी उपेक्षा करीने-तेनुं लक्ष छोडीने एक ज्ञायकभाव त्रिकाळी ध्रुव भगवाननो आश्रय करे छे तेने जितमोह जिन कहे छे. भाई! आ एक (ज्ञायक) भाव जेने यथार्थ बेसे एने बधा भाव यथार्थ बेसी जाय. पण जेने एक भावनां ठेकाणां न मळे ते नाखे कर्म उपर. पण तेथी शुं थाय? (संसार न मटे)
हवे कहे छेः-केवो छे ज्ञानस्वभाव? ३१ मी गाथामां जे कह्युं हतुं ए ज अहीं छे. आ समस्त लोक उपर तरतो छे. ज्ञाननी पर्यायमां स्वपरप्रकाशक थवानो स्वभाव छे. तेथी ज्ञानस्वभाव वडे ते ज्ञेयने-लोकने जाणे छे छतां ते ज्ञेयथी भिन्न रहे छे. ज्ञेयने