अथ भाव्यभावकभावाभावेन–
जिदमोहस्स दु जइया खीणो मोहो हवेज्ज साहुस्स। तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूहिं।। ३३ ।।
तदा खलु क्षीणमोहो भण्यते स निश्चयविद्भिः।। ३३ ।।
हवे, भाव्यभावक भावना अभावथी निश्चयस्तुति कहे छेः-
निश्चयविदोथकी तेहने क्षीणमोह नाम कथाय छे. ३३.
गाथार्थः– [जितमोहस्य तु साधोः] जेणे मोहने जीत्यो छे एवा साधुने [यदा] ज्यारे [क्षीणः मोहः] मोह क्षीण थई सत्तामांथी नाश [भवेत्] थाय [तदा] त्यारे [निश्चयविद्भिः] निश्चयना जाणनारा [खलु] निश्चयथी [सः] ते साधुने [क्षीणमोहः] ‘क्षीणमोह’ एवा नामथी [भण्यते] कहे छे.
टीकाः– आ निश्चयस्तुतिमां पूर्वोक्त विधानथी आत्मामांथी मोहनो तिरस्कार करी, जेवो (पूर्वे) कह्यो तेवा ज्ञानस्वभाव वडे अन्यद्रव्यथी अधिक आत्मानो अनुभव करवाथी जे जितमोह थयो, तेने ज्यारे पोताना स्वभावभावनी भावनानुं सारी रीते अवलंबन करवाथी मोहनी संततिनो अत्यंत विनाश एवो थाय के फरी तेनो उद्रय न थाय-एम भावकरूप मोह क्षीण थाय, त्यारे (भावक मोहनो क्षय थवाथी आत्माना विभावरूप भाव्यभावनो पण अभाव थाय छे अने ए रीते) भाव्यभावक भावनो अभाव थवाने लीधे एकपणुं थवाथी टंकोत्कीर्ण (निश्चल) परमात्माने प्राप्त थयेलो ते ‘क्षीणमोह जिन’ कहेवाय छे. आ त्रीजी निश्चयस्तुति छे.
अहीं पण पूर्वे कह्युं हतुं तेम ‘मोह’ पदने बदली राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, ध्राण, रसन, स्पर्शन-ए पदो मूकी सोळ सुत्रो (भणवां अने) व्याख्यान करवां अने आ प्रकारना उपदेशथी बीजां पण विचारवां.