Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१प४ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-२ बधा एकरूप कह्या होय पण परमार्थे तो तुं भिन्न ज छे. दिव्यध्वनिमां आम नयविभाग आवे छे अने संतो-मुनिओ पण आ ज रीते भिन्नता बतावे छे.

व्यवहारनयने ज जाणनारा एटले के रागथी धर्म थाय एम माननारा अज्ञानीओ राग अने आत्माने एक कहे छे, माने छे. परंतु सर्वज्ञ परमेश्वर तथा जेमणे राग अने विकल्पथी भगवान आत्माने भिन्न जोयो छे, जाण्यो छे, मान्यो छे अने अनुभव्यो छे एवा भावलिंगी संतो एम कहे छे के-‘भाई! आत्मामां रागनो अंश नथी. आत्मा निश्चयथी रागथी भिन्न छे.’ आम निश्चयनयना बळथी आत्मा अने रागना एकपणाने जडमूळथी उखेडी नाखे छे.

आवो उपदेश सांभळी पोताना स्वरूपने जाणतां, जे चैतन्यज्योत मरणतुल्य थई गई हती ते जाग्रत थई गई. त्यारे भान थयुं के-अहो! हुं तो ज्ञायकस्वरूप ज्ञान अने आनंदनी मूर्ति छुं. रागादि मारा स्वरूपमां नथी अने तेमनाथी मने लाभ पण नथी. मारुं टकवुं मारा चिदानंदस्वरूपथी छे, निमित्त के रागथी मारुं टकवुं नथी. अहाहा! हुं तो पूर्ण आनंद, पूर्ण ज्ञान, पूर्ण श्रद्धा, पूर्ण शांति इत्यादि अनंत अनंत परिपूर्ण शक्तिओथी भरेलो भगवान छुं, इश्वर छुं. आवी रीते जे अनादिनो रागनो अनुभव हतो ते छूटीने चैतन्यज्योतिस्वरूप भगवान ज्ञायक आत्मानो अनुभव थाय त्यारे सम्यग्दर्शन थाय छे. त्यारे आत्मा सजीवन थाय छे.

पहेलांना समयमां शियाळामां जे घी आवतुं ते खूब घन आवतुं. एवुं घन आवतुं के तेमां आंगळी तो शुं, तावेथोय प्रवेशी शक्तो नहि. तेम भगवान आत्मा चैतन्य ज्ञानघन छे. एमां शरीर, वाणी, मन अने कर्म तो प्रवेशी शक्तां नथी, पण शुभाशुभ विकल्प पण तेमां प्रवेशी शक्ता नथी. शरीरादि अजीव तत्त्व छे अने शुभाशुभभाव आश्रव तत्त्व छे. ते बन्ने-आस्रव अने अजीव तत्त्वथी पूर्णानंदनो नाथ भिन्न छे. अहाहा! जीवती-जागती चैतन्यज्योत अंदर पडी छे ते ज्ञान-दर्शनमय चैतन्यप्राणथी त्रिकाळी टकी रही छे. आवा त्रिकाळ टक्ता तत्त्वने न मानतां, देहनी क्रिया मारी, जड कर्म मारुं, दया, दान इत्यादि विकल्प मने लाभदायक एम मानीने अरेरे! जीवती ज्योतने ओलवी नाखी छे. मान्यतामां एना त्रिकाळ सत्त्वनो नकार कर्यो छे.

आवा अज्ञानी जीवने संतोए बताव्युं छे के-भाई! जे सम्यग्दर्शनना अनुभवमां जणाय छे ते चैतन्यसत्ता परिपूर्ण महान छे. ते परिपूर्ण सत्तामां रागनो कण के शरीरनो रजकण समाय एम नथी. अहाहा! ते ज्ञायक चैतन्यचंद्र एकलो शीतळ-शीतळ-शीतळ, शांत-शांत-शांत अकषाय स्वभावनुं पूर छे. भाई! तुं ज आवडो महान छो पोतानी अनंत रिद्धि-गुणसंपदानी खबर नथी तेथी जे पोतानी संपत्ति नथी एवां शरीर, मन, वाणी, बाग, बंगला इत्यादिने पोतानी संपत्ति मानी बेठो छे. अरे प्रभु! तुं कयां राजी थई