तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेदव्वं।। ३४ ।।
तस्मात्प्रत्याख्यानं ज्ञानं नियमात् ज्ञातव्यम्।। ३४ ।।
तेथी नियमथी जाणवुं के ज्ञान प्रत्याख्यान छे. ३४.
[परान्] पर छे’ [इति ज्ञात्वा] एम जाणीने [प्रत्याख्याति] प्रत्याख्यान करे छे-त्यागे छे, [तस्मात्] तेथी, [प्रत्याख्यानं] प्रत्याख्यान [ज्ञानं] ज्ञान ज छे [नियमात्] एम नियमथी [ज्ञातव्यम्] जाणवुं. पोताना ज्ञानमां त्यागरूप अवस्था ते ज प्रत्याख्यान छे, बीजुं कांई नथी.
अन्य समस्त परभावोने, तेओ पोताना स्वभावभाव वडे नहि व्याप्त होवाथी परपणे जाणीने, त्यागे छे; तेथी जे पहेलां जाणे छे ते ज पछी त्यागे छे, बीजो तो कोई त्यागनार नथी-एम आत्मामां निश्चय करीने, प्रत्याख्यानना (त्यागना) समये प्रत्याख्यान करवायोग्य जे परभाव तेनी उपाधिमात्रथी प्रवर्तेलुं त्यागना कर्तापणानुं नाम (आत्माने) होवा छतां पण, परमार्थथी जोवामां आवे तो परभावना त्यागकर्तापणानुं नाम पोताने नथी, पोते तो ए नामथी रहित छे कारण के ज्ञानस्वभावथी पोते छूटयो नथी, माटे प्रत्याख्यान ज्ञान ज छे-एम अनुभव करवो.
ज्ञानस्वभाव छे. परद्रव्यने पर जाण्युं, पछी परभावनुं ग्रहण नहि ते ज त्याग छे. ए रीते, स्थिर थयेलुं ज्ञान ते ज प्रत्याख्यान छे, ज्ञान सिवाय कोई बीजो भाव नथी. उत्थानिकाः–
आ रीते अज्ञानी जीव अनादि मोहना संतानथी निरूपण करवामां आवेलुं जे आत्मा अने शरीरनुं एकपणुं तेना संस्कारपणाथी अत्यंत अप्रतिबुद्ध हतो. शुं कहे छे? अनादिथी अज्ञानीने राग अने शरीरमां सावधानी होवाथी ते ज्ञानानंदस्वभावी चैतन्यने