१६० ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-२ राग अने शरीर साथे एकपणुं मानतो हतो. ते आ एकपणाना संस्कारथी अप्रतिबुद्ध हतो. जुओ, कोई कहे के आ समयसार मुनि माटे छे तो एम नथी. अहीं तो जे शरीर अने आत्माने एक माने छे एवा अत्यंत अप्रतिबुद्धने समजाववामां आव्युं छे.
हजारो राणीओ छोडीने दिगंबर जैन साधु थई, र८ मूळगुण पाळी नवमी ग्रैवेयके गयो. परंतु आनंदस्वरूप चैतन्य प्रभुनी खबर नहि होवाथी, शरीरने ज आत्मा मानतो हतो. बहारथी आत्मा रागथी भिन्न छे एम कहे, पण अंदर जे शुभ क्रियाकांडनो राग अवस्थामां प्रगट हतो तेमां ज पोतापणुं मानतो हतो. पोते शुं चीज छे अने पोतानुं अस्तित्व-होवापणुं-मोजूदगी केवी रीते छे एनो ख्याल नहि होवाथी ‘हुं आत्मा छुं’ एम कहेतो होवा छतां रागादिने ज आत्मा मानतो हतो. रागादिथी पृथक् पोतानी ज्ञायकवस्तुनी द्रष्टि थई नहि. तेनो अनुभव थयो नहि एटले कयांक परमां- रागादिमां ज पोतापणुं मानतो हतो. अगियार अंगनो पाठी होय एटले बहारथी ‘राग अने आत्मा भिन्न छे’ एम भाषामां बोले, पण अंतरमां राग अने आत्मानी एक्ता तोडी नहि. अहाहा! अगियार अंगमां केटलुं जाणवुं आवे? पहेला आचारांगमां १८ हजार पद होय छे अने ते एक एक पदमां प१ करोड जाजेरा श्लोक छे. बीजा अंगमां तेनाथी बमणा ३६ हजार पद होय छे. आम एक एकथी बमणा एम अगियार अंग सुधी लई लेवुं. आ बधुंय कंठस्थ कर्युं, परंतु अंदरमां विकल्पथी भिन्न, निर्विकल्प चैतन्य आनंदकंद छे एनी द्रष्टि, एनो अनुभव अने एनुं वेदन कर्युं नहि तेथी ते अत्यंत अप्रतिबुद्ध हतो. भाई! आ तो अंतरनी चीज छे. ते अंतरना स्पर्श विना मळे एवी नथी.
आवी रीते जे अत्यंत अप्रतिबुद्ध हतो ते हवे तत्त्वज्ञानस्वरूप ज्योतिनो प्रगट उदय थवाथी ज्ञानी थयो. रागथी भिन्न चैतन्यज्योतिनो भास थतां ‘पोते ज्ञायकस्वरूप ज हुं छुं’ एवो अनुभव थयो तेथी ज्ञानी थयो. ‘चैतन्य ज्ञानज्योतिस्वरूप हुं छुं’ एवो विकल्प नहि, पण तेवी परिणतिनो प्रगट उदय थतां, जेम नेत्रमां विकार होय ते दूर थतां वस्तु जेवी होय तेवी देखाय छे तेम, ते प्रतिबुद्ध थयो. जेम कोई पुरुषना नेत्रमां विकार होय त्यारे वर्णादिक पदार्थो अन्यथा देखाय छे. पण ज्यारे विकार मटे छे त्यारे पदार्थो जेवा होय तेवा देखाय छे. तेवी रीते पडळ समान आवरणकर्म सारी रीते उघडी जवाथी प्रतिबुद्ध थयो, साक्षात् ज्ञाता-द्रष्टा थयो. अहीं जे कर्मनी वात करी छे ते निमित्तनुं कथन छे. खरेखर तो स्वभावनुं भान थतां, मिथ्या श्रद्धानने लीधे जे भावघातीनी अवस्था थती हती अने जेना कारणे आत्मदशा प्रगट नहोती थती ते दूर थवाथी पोते साक्षात् ज्ञाताद्रष्टा थयो.
आत्मा वस्तु स्वभावथी तो ज्ञाता-द्रष्टा छे ज. एवा ज्ञाता-द्रष्टा-स्वभावनुं भान थतां मिथ्या श्रद्धानो नाश थई पर्यायमां ज्ञाताद्रष्टापणुं प्रगट थयुं तेने साक्षात् ज्ञाता-द्रष्टा थयो