गाथा ३४ ] [ १६१ एम कह्युं छे. आत्मामां दया, दाननो राग के व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प नथी. अने तेथी रागथी के व्यवहाररत्नत्रयना विकल्पथी ज्ञाताद्रष्टास्वभाव प्राप्त थतो नथी, केमके जेनामां जे न होय तेनाथी ते प्राप्त केम थाय?
एकलो देखनार अने जाणनार एवा पोताने पोताथी ज जाणी, रागथी के विकल्पथी नहि पण स्वचैतन्यमां चैतन्यनी परिणति द्वारा प्रवेशीने पोताने जाणी, श्रद्धान करी, तेनुं ज आचरण करवानो इच्छुक थयो छे. एटले हवे ते मुनिपणानी भावना करे छे.
प्रश्नः– ‘पोताने पोताथी ज जाणे’ एमां एकांत थई गयुं, स्याद्वादपणुं तो न रह्युं?
उत्तरः– ‘पोताने पोताथी ज जाणे’ ए सम्यक् एकान्त छे. ते सम्यक् एकान्त ज अनेकान्तनुं साचुं ज्ञान करे छे. पोते पोताथी ज जणाय अने परथी न जणाय ए ज अनेकान्त छे. अने ए ज सम्यक् एकान्त छे. भाई! वीतरागनो स्याद्वाद मार्ग आवो छे. पोताथी पण जाणे अने रागथी पण जाणे ए तो फुदडीवाद छे, स्याद्वाद नहि.
चैतन्यसूर्यना प्रकाशनुं पूर प्रभु आत्मा पोताना निर्मळ प्रकाश द्वारा ज पोताने प्रकाशे छे. ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा ज्ञाननी निर्मळ पर्याय द्वारा ज पोताने पोताथी जाणे छे. तेने रागनी के व्यवहारनी अपेक्षा नथी. एटले के व्यवहारथी निश्चय जणाय नहि. परंतु व्यवहारनुं लक्ष छोडी स्वभावनुं सीधुं लक्ष करतां ते पोताथी पोताने जाणे छे. ज्ञाननी निर्मळ पर्याय द्वारा ज्ञायकने जाणी पछी श्रद्धान करवुं. जुओ अहीं प्रथम आत्माने जाणवो, पछी श्रद्धान करवुं एम कह्युं छे, कारण के जाण्या विना श्रद्धा कोनी? १७-१८ गाथामां पण आ वात आवी गई छे.
हवे जेने ज्ञान-श्रद्धान थयां छे ते एमां ज आचरण करवा इच्छुक थयो थको पूछे छे के ‘आ स्वात्मारामने अन्य द्रव्योनुं प्रत्याख्यान (त्यागवुं) ते शुं छे?’ निजपदमां रमे ते आत्माराम छे. तेने प्रत्याख्यान नुं शुं स्वरूप छे? अन्यद्रव्यना त्यागनुं शुं स्वरूप छे? आत्मा ज्ञाननो पुंज प्रभु छे. उदयभावरूप संसारनो अंश के तेनी गंध पण एमां नथी. आवा आत्माने जाणीने, एने प्रतीतिमां लईने हवे शिष्य गुरुने पूछे छे के-मने आत्मामां आचरण केम थाय? अन्यद्रव्यना अर्थात् रागना त्यागरूप पच्चकखाण केवी रीते थाय? ज्ञानीने चारित्र केवुं होय एनी खबर छे, छतां विनयपूर्वक गुरुने विशेष माटे पूछे छे.
शुद्ध चैतन्यघन पूर्ण स्वभावथी भरेलो भगवान आत्मा अनंत अनंत आनंदनुं गोद्राम छे. संयोगी चीजमां आत्मा नथी अने आत्मामां संयोगी चीज नथी. बन्ने तद्न भिन्न भिन्न छे. हवे अहीं कहे छे के संयोगी चीज तो दूर रही, पण संयोगीकर्मना लक्षे थता जे संयोगीभाव-पुण्यपापना भाव तेनाथी पण आत्मा भिन्न छे, जुदो छे.