गाथा ३४ ] [ १६प साक्षात् धर्म छे. कह्युं छे ने के ‘चारित्तं खलु धम्मो’-चारित्र ते धर्म छे. ए ज दुःखथी छूटवानो उपाय-मोक्षमार्ग छे. आवुं चारित्र कोने कहेवाय? प्रवचनसार गाथा ७ नी टीकामां आवे छे-‘स्वरूपे चरणं चारित्रं’ स्वरूपमां चरवुं ते चारित्र छे. स्वरूपमां आचरण करवुं-ठरवुं ए चारित्र छे. रागनुं आचरण ते चारित्र नथी. पंचमहाव्रतनो विकल्प ए पण अचारित्र छे. ज्ञानानंदस्वभावी भगवान आत्मा ते हुं छुं. अने राग- गमे तेवो मंद हो, दया, दान, व्रत, तप, भक्तिनो हो के व्यवहाररत्नत्रयनो हो-ते मारा चैतन्यघनस्वभावपणे थाय एवुं एनुं स्वरूप नथी, अने हुं रागपणे थाउं एवो मारो चैतन्यस्वभाव नथी. ज्ञानमां आम निश्चय करीने, रागने परपणे जाणी, ज्ञान ज्ञानमां ठरे ए प्रत्याख्यान छे, चारित्र छे, धर्म छे.
हवे कहे छे-जे पहेलां जाणे छे ते ज पछी त्यागे छे, बीजो कोई त्यागनार नथी एम आत्मामां निश्चय करीने प्रत्याख्यानना समये एटले परना त्यागना काळे प्रत्याख्यान करवा योग्य जे परभाव-रागादि तेनी उपाधिमात्रथी प्रवर्तेलुं त्यागना र्क्तापणानुं नाममात्र कथन छे. शुं कहे छे? आत्मा रागनो त्याग करे छे ए नाममात्र कथन छे. चाहे तो तीर्थंकरगोत्र बांधवानो भाव होय, पण ते भाव निज चैतन्यस्वभावपणे थवाने लायक नथी एम ए भावने परभाव तरीके जाण्यो त्यारे आत्मा रागने त्यागे छे एम कहेवुं ए कथनमात्र छे, केमके ज्ञान ज्ञानमां ठरी गयुं त्यां राग उत्पन्न ज थतो नथी. बापु! आ तो जन्म-मरणना फेरा मटाडवानी बहु मोंघी वात छे.
जेने भगवान ज्ञाता-द्रष्टावस्तुनो पोतानी निर्मळ ज्ञानपर्यायमां प्रत्यक्ष अनुभव थयो के ‘आ आत्मा छे’ तेने हवे प्रत्याख्यान केम थाय? एनो हवे उत्तर आपे छे के जेणे अंदरमां जाण्युं के राग अने चैतन्यस्वभाव भिन्न-भिन्न छे, रागपणे थवुं ए मारुं स्वरूप नथी अने मारा स्वभावपणे थवुं ए रागनुं स्वरूप नथी, ए जाणनारो रागने भिन्न जाणी तेने त्यागे छे. परंतु रागने त्यागे छे ए तो कथनमात्र छे, कारण के रागना त्यागनुं र्क्तापणुं परमार्थे जीवने नथी. निर्मळ भेदज्ञान मळे नहि अने बहारथी आनो अने तेनो त्याग करे अने माने अमे त्यागी. पण भाई! जीवने परनुं त्याग- ग्रहण मानवुं ए तो मिथ्यात्व छे, भ्रांति छे. अहीं कहे छे के रागनो त्याग करनार जीव छे एम कहेवुं ए पण कथनमात्र छे, परमार्थ नथी. खरेखर तो ए रागना त्यागनो र्क्ता छे ज नहि. स्वरूपमां ठरतां राग थतो ज नथी, माटे रागनो त्याग करे छे एम नाममात्र कथन छे. अहो! आ तो परमेश्वर त्रणलोकना नाथ सर्वज्ञ परमात्मानी दिव्यध्वनिमां आवेली वात संतोए आडतिया थईने जगतने जाहेर करी छे. प्रत्याख्यान समये एटले स्वरूपमां ठरवाना काळे, प्रत्याख्यान करवा योग्य जे परभाव-राग तेनो त्याग कर्यो एम कहेवुं ए नाममात्र कथन छे. अहाहा! टीका तो जुओ!! आवी टीका अत्यारे भरत-