Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१७८ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-२ दया पाळवी, व्रत करवां अने देशनी सेवा करवी एमां लोको धर्म मानी बेठा छे. पण बापु! एमां धूळेय धर्म थतो नथी. आत्मानी तें कदी सेवा करी नथी तेथी तने धर्म थयो नथी.

भूल केम छे अने ते केम टळे? अनादिथी जीव पुण्य-पापना भावने पोताथी एकपणे मानीने सूतो छे अने पोते पोतानी मेळे अज्ञानी थई रह्यो छे. कर्मोए तेने अज्ञानी कराव्यो छे एम नथी. आवा अज्ञानीने श्रीगुरु भेदज्ञान करावे छे के-भाई! तुं तो वीतराग-विज्ञाननो घन छे. तारी चीजमां तो एकलां ज्ञान अने आनंद भर्यां छे. राग ज्यां तारी चीज नथी, तो पछी शरीर, बायडी, छोकरां इत्यादि तारां कयांथी होय? तेथी पर जडनी तो अहीं वात ज लीधी नथी. अहीं तो रागथी भिन्नता बतावनारी उथल-पाथलनी वात छे. कहे छे के पुण्य-पापना परिणामने तुं पोताना माने छे ते मान्यताने उथलावी नाख. भाई! आ कांई भाषा बोलवाथी थई जाय एम नथी. निज चैतन्यस्वभावथी एकपणुं करी अंतर परिणमन करवुं जोईए.

भगवान! तुं आनंदनो नाथ प्रभु रागमां एकपणुं मानी सूतो छे ते तने शोभे छे? तुं तो जाणनार-देखनार स्वरूपे छे. पुण्य-पापना विकल्पो ए तारा नथी. तुं एमां नथी. माटे तुं शीघ्र जाग. श्रीगुरु कहे छे के-जाग रे जाग, भाई! हवे तुं रागमां बहु सूतो छे, अनादिथी तुं रागनी सोड ताणी सूतो छे. हवे शीघ्र जाग. हळवे-हळवे एम नहि, पण शीघ्र जाग. सावधान था. आ तारो आत्मा एक ज्ञानमात्र ज छे. जाणवुं- जाणवुं-जाणवुं एवा जाणकस्वभावना तत्त्वनुं तुं सत्त्व छे, ज्ञानमात्र कहेतां राग नहि पण तेमां अनंत आनंद, शान्ति, प्रभुता, स्वच्छता इत्यादि अनंत शक्ति आवी जाय छे. आम श्रीगुरु परभावथी भेदज्ञान करावी (अज्ञानीने) एक आत्मभावरूप करे छे.

अहाहा! आमां तो श्रीगुरु-जैनना गुरु-दिगंबर संत-निर्ग्रंथ गुरु केवो उपदेश आपे छे ए पण आवी जाय छे. आनो अर्थ एम थाय छे के जैनना गुरु एने कहेवाय के जे एम उपदेश आपे के रागथी आत्मा भिन्न छे, रागथी आत्माने किंचित् पण लाभ के धर्म थाय नहीं. परंतु जे रागथी धर्म थवानुं कहे ते साचा जैनगुरु नथी पण अज्ञानी कुगुरु छे. दिगंबर निर्ग्रंथ गुरु तो अज्ञानीने रागादि परभावथी विवेक करावे छे के- भगवान! पुण्य-पापना जे भाव उत्पन्न थाय ते आत्मानी चीज नहि, ए तो आत्मानो घात करनारी चीज छे. भगवाने सात तत्त्व कह्यां छे के नहि? तो तेमां दया, दान, व्रत, भक्ति, इत्यादि भाव पुण्यतत्त्व छे, अने हिंसा, चोरी आदिना भाव ते पापतत्त्व छे. तथा ते बन्नेथी भिन्न एकरूप ज्ञायकभाव छे ते जीवतत्त्व छे. अहाहा! शरीर, वाणी, इत्यादि अजीव तत्त्व छे ए तो कयांय दूर रह्यां, परंतु अहीं तो जे राग थाय छे ते कृत्रिम, क्षणिक, उपाधिमय मलिनभावथी तारी ज्ञायक चीज