गाथा ३प ] [ १७९ भिन्न छे एम श्रीगुरु भेदज्ञान करावी जीवने एक आत्मभावरूप करे छे. अहो! ज्ञानीओनो उपदेश परभावथी भेद करावी जीवने आत्मभावरूप करे छे!
अरेरे! एणे अनंतकाळथी आम ने आम पोतानी मूळ चीजने समज्या विना बधुं गुमाव्युं छे. छहढाळामां आवे छे ने केः-
अनंतवार व्रत, तप, भक्ति, पूजा करीने मरी गयो, परंतु आत्मानुं ज्ञान कर्युं नहि तेथी किंचित् सुखनी प्राप्ति न थई. रागनुं ज्ञान न कर्युं एम नहि पण (रागथी भिन्न) आत्मानुं ज्ञान-चैतन्यनुं ज्ञान न कर्युं तेथी सुखी न थयो अने चारगतिमां रखडयो. अहाहा! दिगंबर मुनि थयो, र८ मूळगुण पाळ्या, महाव्रतादि पाळ्यां; पण एमां कयां धर्म हतो? ए तो राग, विकल्प अने आस्रवभाव हतो. दुःख अने आकुळता हतां. एनाथी भिन्न आत्माना ज्ञान विना सुख कयांथी थाय?
तेने हवे श्री गुरु कहे छे के-भाई! शीघ्र जाग, ऊठ. अनंतकाळथी पुण्य-पापने पोतानां मानी मिथ्यात्वमां सूई रह्यो छे तो हवे जलदी जाग. आ टाणां आव्यां छे, माटे सावधान था-सावधान था. राग तारी चीज नथी तेथी रागमां सावधानी छे ते छोडीने हवे स्वरूपमां सावधान था. जे व्यवहारमां सावधान छे ते निश्चयमां ऊंघे छे अने जे निश्चयमां सावधान छे ते व्यवहारमां ऊंघे छे.
आ तारो आत्मा वास्तवमां एक ज छे. अर्थात् ते ज्ञानस्वरूपे पण छे अने राग-स्वरूपे पण छे एम नथी. तुं तो भगवान! एक ज्ञानस्वरूपे ज छे. राग तो अन्यद्रव्यनो-पुद्गलनो भाव छे. रागमां चैतन्यना प्रकाशना नूरनो अभाव छे. दया, दान, व्रत, भक्ति आदि शुभभावो चैतन्यना प्रकाशथी रहित अंधकारमय छे. चैतन्यप्रकाशबिंब प्रभु तुं एक ज्ञायकभावमात्र छे अने रागथी मांडीने सघळा अन्यद्रव्यना भावो-परद्रव्यना भावो परभावो छे. माटे तुं शीघ्र जाग्रत थई स्वरूपमां सावधान था. श्रीगुरुनो आवो उपदेश छे. आकरुं तो लागे पण आ ज परमार्थ वात छे. आ सिवाय अन्यथा कोई उपदेश करे के-व्यवहारथी धर्म थाय के व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय तो ते जैन गुरु नथी पण मिथ्याद्रष्टि-अज्ञानी छे.
अज्ञानी एकवार के बे वारमां समजतो नथी. एटले श्रीगुरु तेने वारंवार समजावे छे के-‘राग अने आत्मा भिन्न भिन्न छे, व्यवहार करतां करतां निश्चय न थाय, राग करतां करतां वीतरागता न थाय, इत्यादि.’ आम वारंवार सांभळे छे तेने वारंवार कहे छे एम कहेवाय छे. वारंवार सांभळवानी योग्यता हती तेथी वारंवार सांभळवाथी शिष्यने जिज्ञासा थई के-अहो! आ शुं कहे छे? तेने श्रीगुरु आगमनुं वाकय कहे छे