१८० ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-२ के-शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप भगवान आत्माने रागथी भिन्न पडी अंतर-द्रष्टि-ज्ञान- रमणतामां लेवो ते आत्मव्यवहार छे, अने शुभराग छे ए तो मनुष्य एटले संसारनो व्यवहार छे. रागनो भाव-दया, दान, व्रत, भक्ति, जात्रा इत्यादिनो गमे तेवो मंद हो पण ते आत्मानी चीज नथी. जुओ, भगवान सर्वज्ञ परमेश्वरनी दिव्यध्वनि अने आगमनो आ सिद्धांत छे. आ आगमनुं वाकय छे. श्रीगुरु आ आगमना वाकयने कहे छे.
अहीं त्रण सिद्धांत सिद्ध कर्याछे. (१) भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप होवा छतां पोताना भ्रमथी शुभविकल्पने पोतानो माने छे.
(२) चैतन्यमूर्ति भगवान आत्माने अने रागने पोताना अज्ञानथी-भ्रमथी एक मानीने अज्ञानी सूतो छे. परद्रव्यथी, कर्मथी के कुगुरु मळ्या तेथी एकत्व मानीने सूतो छे एम नथी. पोताना अज्ञानना कारणे सूतो छे.
(३) श्रीगुरु तेने वारंवार वीतरागभावनो (भेदज्ञान करवानो) आगम-वाकय द्वारा उपदेश आपे छे अने जिज्ञासु शिष्य ते वारंवार सांभळे छे, एकवार सांभळीने चाल्यो जतो नथी. देशसेवाथी, जनसेवाथी, गुरुसेवाथी, के प्रभुसेवाथी धर्म थाय एवो उपदेश ए कांई वीतरागभावनो उपदेश नथी, ए तो लौकिक वातो छे.
आत्मानुं स्वरूप वीतरागभावरूप छे. तेथी राग-विकल्प ए आत्मानी चीज नथी. आत्मा एनाथी भिन्न छे. रागमां धर्म नथी अने धर्ममां राग नथी. श्रीगुरु वारंवार आवो उपदेश आपे छे. एटले के आगमनुं वाकय आवुं होय छे अने श्रीगुरु एवा ज वाकयने कहे छे; सांभळनार शिष्य पण आम ज (ए ज भावथी) सांभळे छे. शिष्य जिज्ञासाथी वारंवार उपदेश सांभळे छे तेथी श्रीगुरु वारंवार कहे छे एम कह्युं छे. आ वात वारंवार सांभळवाथी तेने रुचि-प्रमोद जागे छे के-अहो! आ तो कयारेय नहि सांभळेली कोई अलौकिक जुदी ज वात छे. जीवनुं स्वरूप वीतराग-विज्ञानता छे एम जे वारंवार कहे ते ज गुरुनी पदवीने शोभावे छे. रागथी आत्मामां लाभ (धर्म) थाय एवुं वचन आगमनुं वाकय नथी. अने एवुं वचन (वाकय) कहेनार गुरु नहि पण अज्ञानी कुगुरु छे. अहाहा! टीकामां केटलुं बधुं सिद्ध कर्युं छे?
आ समयसार शास्त्रनी ३८ मी गाथामां आवे छे के-‘जे, अनादि मोहरूप अज्ञानथी उन्मत्तपणाने लीधे अत्यंत अप्रतिबुद्ध हतो अने विरक्त गुरुथी निरंतर समजाववामां आवतां...’ तो शुं गुरु निरंतर समजाववा नवरा थोडा होय छे? एनो अर्थ एम छे के गुरुए जे समजाव्युं तेनुं शिष्य वारंवार चिंतन करे छे. उपदेश तो छठ्ठा गुणस्थाने मुनिने विकल्प होय तो आपे, नहीं तो तरत ज सातमा गुणस्थानमां आवी जाय छे. अहीं ‘निरंतर समजाववामां आवतां’ एम कह्युं छे तेनो अर्थ ए थयो के सांभळवावाळो