१८२ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-२ राग अचेतनस्वरूप, दुःखस्वरूप अने आकुळतास्वरूप छे. सारी रीते परीक्षा करीने’ एम कह्युं छे. एटले उपर टपके परीक्षा करीने एम नहीं. अहो! संतोए जगतने शुं न्याल करी दीधुं छे! देव केवा, गुरु केवा, शास्त्र केवां अने धर्म केवो होय ए सघळुं सिद्ध करी बताव्युं छे.
‘समस्त चिह्नोथी’ एम केम लीधुं? के एकला स्वना ज चिह्नोथी परीक्षा करी एम नहि, पण स्व अने पर बन्नेनां चिह्नोथी भली भांति परीक्षा करी. माटे ‘समस्त चिह्नोथी सारी रीते परीक्षा करीने’ एम लीधुं छे. पोते एक आत्मा अने बीजो राग एम बन्नेनां लक्षणो-एंधाणथी परीक्षा करी. परीक्षा शुं करी? के हुं आत्मा ज्ञानलक्षणथी लक्षित त्रिकाळी ध्रुव कायम रहेवावाळी चीज अनाकुळ आनंदस्वरूप छुं अने आ राग तो अचेतन, कृत्रिम, क्षणिक अने आकुळतामय दुःखस्वरूप छे. बन्नेनां लक्षणो भिन्न छे माटे राग मारो नथी. ‘जरूर आ परभावो ज छे’-एम परीक्षा करीने जाणे छे. राग परभाव ज छे एटले कथंचित् राग आत्मानो छे अने कथंचित् परनो छे एम नहीं. शरीर, मन, वाणी, पैसा-धूळ, बायडी, छोकरां ए तो बधां कयांक दूर रही गयां, पण स्वभावनी द्रष्टिमां तो राग पण परभाव ज छे एम जणाय छे.
आ राग परभाव ज छे अने हुं परभावथी भिन्न छुं एम कयारे जाणवामां आव्युं? के ज्यारे हुं एक ज्ञानमात्र ज चैतन्यप्रकाशनो पुंज छुं एम जाणवामां आव्युं त्यारे. मारी सत्ता एक चैतन्यबिंबमय छे एवुं अस्तिथी भान थयुं तो राग-परभाव मारामां नथी एवुं नास्तिनुं ज्ञान थई जाय छे. एक ज्ञानस्वरूपने जाणतां, ज्ञानमां ज्ञान ज छे पण एमां राग नथी एम जणाई जाय छे. ज्ञायकस्वभावनी ज्यां द्रष्टि थई त्यां एमां राग नथी एम रागनी भिन्नतानुं ज्ञान थई जाय छे. आम हुं एक ज्ञानमात्र ज छुं एम जाणतां परभावथी भिन्न पडी जवाय छे. पण आ समजवानी कोने पडी छे? आ तो जेने अंतरथी गरज थाय अने रखडवानो थाक लागे एना माटे वात छे. जे परिभ्रमणथी दुःखी छे एनां दुःख मटाडवानी चीज आ छे. आ भगवान आत्मा आनंद छे अने राग दुःख ज छे, आत्मा ज्ञान छे अने राग अज्ञान छे, आत्मा जीव छे अने राग अजीव छे, आत्मा चेतनमय छे अने राग अचेतन पुद्गलमय छे-एम लक्षणो वडे बन्नेने भिन्न जाणी ज्ञानस्वभावमां एक्ता करी हुं ज्ञानमात्र छुं एम जाणे त्यां जरूर रागादि परभाव छे एनुं ज्ञान थई जाय छे.
हवे कहे छे-‘एम जाणीने ज्ञानी थयो थको सर्व परभावोने तत्काळ छोडे छे.’ एटले के रागने परभाव जाणी, स्वभावमां आवतां परभावने ते तत्काळ छोडी दे छे अर्थात् तेनो आश्रय करतो नथी. प्रत्याख्याननी वात छे ने? स्वभावनो स्वीकार करतां राग छूटी जाय छे एने राग छोडयो एम कहेवामां आवे छे. अहाहा! वीतराग सर्वज्ञ