त्रिकाळशुद्ध, ध्रुवस्वरूप, एकरूप त्रिकाळ जेम पर्यायनो भेद पण नथी एवा शुद्धात्मानुं स्वरूप अभिधेय छे. छठ्ठी गाथामां कहेशे के ज्ञायकभाव प्रमत्त पण नथी, अप्रमत्त पण नथी. ए रीते एने शुद्ध कहीए छीए. तेना वाचक आ ग्रंथना (समयसार शास्त्रना) शब्दो छे, अने वाच्य शुद्ध आत्मा छे.
ध्येय एटले पकडवा लायक, आश्रय करवा लायक, अनुकरण करवा लायक, अनुसरण करवा लायक-जे ध्रुव छे ते. आम अनंत केवळीओए कह्युं छे. तेना वाचक ग्रंथना शब्दो छे. छे ने? शुद्ध आत्मानुं स्वरूप ते ध्येय छे-अभिधेय छे. द्रष्टिमां लेवा योग्य शुद्ध आत्मा ध्रुव छे. ते सम्यक्दर्शननो विषय छे. सम्यक्दर्शननी पर्यायनो विषय आ छे. बीजी रीते कहीए तो पर्याय व्यवहार छे, तेनो विषय निश्चय छे. शुं कह्युं? पर्याय छे ए व्यवहार छे, एनो विषय त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य छे. चिद्दविलासमां आवे छे ने, के ‘नित्यने अनित्य जाणे छे.’ एटले के क्षणिक पर्याय ते ध्रुवने जाणे छे. वस्तु अनादिथी आवी छे. द्रव्य अने निर्मळ पर्याय बे थतां निश्चयनयनो विषय न रह्यो, व्यवहारनयनो विषय थई गयो. खरेखर व्यवहारनो (पर्यायनो) विषय निश्चय (द्रव्य) जोईए. पर्याय छे ए व्यवहार छे, भेद छे. एनो विषय त्रिकाळी ध्रुव ए निश्चय छे. आ अभिधेयने ज्यारे पर्याय जाणे छे त्यारे अभिधेय थाय छे. (त्यारे आ ध्रुव आत्मा छे एम जाण्युं अने मान्युं.)
ध्रुव द्रव्य जे ध्येय तेने ज्ञाननी पर्याय जाणे छे, श्रद्धानी पर्याय ध्रुवने ध्येय बनावीने श्रद्धे छे. त्यारे कहे छे के पर्याय जे भेद अने व्यवहार छे ते अभेदने जाणे छे. वाणी बधुं बतावे छे. वाणी बतावे छे के ज्ञाननी पर्याय छे ते जाणे छे. आ तो अनादि सनातन सत्य छे. ध्येय तो ध्येय छे, पण ज्यारे पर्याय धेयने जाणे छे, तेने ध्येय बनावे छे, त्यारे ध्येय खरेखर थयुं कहेवाय. अभिधेय एटले शुं? के शुद्ध आत्मा. शास्त्रे कह्युं के अभिधेय शुद्ध आत्मा ध्रुव छे. पण कोने? जे जाणे एने.
आत्मा तो निश्चयथी परमात्मस्वरूपे बिराजमान नित्य ध्रुव पोते छे. तेने आचार्य भगवाने छठ्ठी गाथामां ज्ञायक कह्यो अने ११ मी गाथामां भूतार्थ कह्यो छे. भूतार्थ ने जाणे छे पर्याय, पण ए पर्याय द्रव्यमां नथी. अहा! पर्याय पर्यायनी छे. पर्यायने द्रव्यनी कहेवी ए तो परथी भिन्न पाडवा माटे छे. उत्पाद, व्यय, ध्रुव त्रणेय सत् छे. पर्याय कोनी छे एम भेद पाडीने समजाववुं होय त्यारे द्रव्यनी कहेवाय. निरपेक्षथी कहेवुं होय तो पर्याय पर्यायनी छे, अने द्रव्य द्रव्यनुं छे.
आ ग्रंथमां अभिधेय, संबंध, प्रयोजन प्रगट ज छे. शुद्धात्मानुं स्वरूप ते अभिधेय छे ए प्रगट छे, गुप्त नथी. भगवान नित्यानंद प्रभु वाच्य छे अने शब्दो वाचक छे,