Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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गाथा ३६ ] [ १८९

(स्वागता)
सर्वतः स्वरसनिर्भरभावं
चेतये स्वयमहं स्वमिहैकम्।
नास्ति नास्ति मम कश्चन मोहः
शुद्धचिद्धनमहोनिधिरस्मि।। ३० ।।

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आत्मा ने जड, शिखंडनी जेम, एकमेक थई रह्यां छे तोपण, शिखंडनी माफक, स्पष्ट अनुभवमां आवता स्वादना भेदने लीधे, हुं मोह प्रति निर्मम ज छुं; कारण के सदाय पोताना एकपणामां प्राप्त होवाथी समय (आत्मपदार्थ अथवा दरेक पदार्थ) एवो ने एवो ज स्थित रहे छे. (दहीं ने खांड मेळववाथी शिखंड थाय छे तेमां दहीं ने खांड एक जेवां मालूम पडे छे तोपण प्रगटरूप खाटा-मीठा स्वादना भेदथी जुदां जुदां जणाय छे; तेवी रीते द्रव्योना लक्षणभेदथी जड-चेतनना जुदा जुदा स्वादने लीधे जणाय छे के मोहकर्मना उद्रयनो स्वाद रागादिक छे ते चैतन्यना निजस्वभावना स्वादथी जुदो ज छे.) आ रीते भावकभाव जे मोहनो उद्रय तेनाथी भेदज्ञान थयुं.

भावार्थः– आ मोहकर्म छे ते जड पुद्गलद्रव्य छे; तेनो उद्रय कलुष (मलिन) भावरूप छे; ते भाव पण, मोहकर्मनो भाव होवाथी, पुद्गलनो ज विकार छे. आ भावकनो भाव छे ते ज्यारे आ चैतन्यना उपयोगना अनुभवमां आवे छे त्यारे उपयोग पण विकारी थई रागादिरूप मलिन देखाय छे. ज्यारे तेनुं भेदज्ञान थाय के ‘चैतन्यनी शक्तिनी व्यक्ति तो ज्ञानदर्शनोपयोगमात्र छे अने आ कलुषता राग- द्वेषमोहरूप छे ते द्रव्यकर्मरूप जड पुद्गलद्रव्यनी छे’, त्यारे भावकभाव जे द्रव्यकर्मरूप मोहनो भाव तेनाथी अवश्य भेदज्ञान थाय छे अने आत्मा अवश्य पोताना चैतन्यना अनुभवरूप स्थित थाय छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [इह] आ लोकमां [अहं] हुं [स्वयं] पोतानी ज [एकं स्वं] पोताना एक आत्मस्वरूपने [चेतये] अनुभवुं छुं [सर्वतः स्व–रस–निर्भर–भावं] के जे स्वरूप सर्वतः पोताना निजरसरूप चैतन्यना परिणमनथी पूर्ण भरेला भाववाळुं छे; माटे [मोहः] आ मोह [मम] मारो [कश्चन नास्ति नास्ति] कांई पण लागतोवळगतो नथी अर्थात् एने अने मारे कांई पण नातो नथी. [शुद्ध–चिद्–घन–महः–निधिः अस्मि] हुं तो शुद्ध चैतन्यना समूहरूप तेजःपुंजनो निधि छुं. (भावकभावना भेद वडे आवुं अनुभव करे.) ३०.

एवी ज रीते, गाथामां ‘मोह’ पद छे तेने बदली, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन-ए