गाथा ३६ ] [ १९३ वीर्यशक्ति इत्यादि अनंत शक्तिओना सामर्थ्यवाळुं तत्त्व छे तेनो ज्यां अंतर-सन्मुख थई स्वीकार कर्यो त्यां आनंदनी धारा पर्यायमां व्यक्त थई. हुं तो उपयोगमय छुं, जे रागादि जणाय छे, भावकनुं भाव्य थाय छे ते हुं नथी. जेम धूळधोयो धूळने, बंगडीना कटकाने, पित्तळनी कणीने अने सोनानी कणीने हळवा अने भारे वजनना लक्षणभेदथी भिन्न करे छे तेम आ भगवान आत्मा, राग अने स्वभावने स्वादभेदथी भिन्न जाणी, ज्ञायकस्वभावनो आश्रय करी रागने भिन्न पाडे छे. पूर्ण आनंदनुं धाम एवा स्वभावनी सत्तानो स्वीकार होवाथी ज्ञानी, आनंदना स्वादने अने रागना स्वादने व्यक्त पर्यायमां भिन्न जाणे छे. भाई! धर्म बहु सूक्ष्म छे, अपूर्व छे. अनंतकाळमां अनेक क्रियाकांड-भक्ति, व्रत, तप, पूजा इत्यादि कर्यां., पण आ कर्युं नथी. आनो उपदेश पण विरल छे.
आम राग तरफना वलणने छोडीने चैतन्यस्वभावना सामर्थ्य प्रति वलण करतां शक्तिमांथी आनंदनी धारा स्वादमां आवे छे. ते रागथी जुदी-भिन्न छे. राग तो जड अचेतन छे. तेमां चैतन्यना-ज्ञानना किरणनो अंश नथी. रागनो जे स्वाद छे ते कलुषित छे अने भगवान चैतन्यनो स्वाद आनंद छे. आम स्वादभेदना कारणे बन्ने जुदा पडे छे. जीवने तथा अजीवने तद्न जुदा पाडवा छे ने? मोहकर्मना उदयनो स्वाद रागादि छे. ते चैतन्यना स्वादथी तद्न जुदो जणाय छे. आ रीते भावकनो भाव जे मोहनो उद्रय छे तेनाथी भेदज्ञान थयुं. एटले के कर्मना निमित्ते जे रागभाव थतो हतो तेने लक्षणभेदथी भिन्न जाणी भेदज्ञानपूर्वक आत्माना स्वभावथी जुदो पाडयो.
आ मोहकर्म छे ते जड पुद्गलद्रव्य छे; अने तेनो जे उद्रय आवे छे ते कलुषित मलिन भावरूप छे. एटले के कर्म जड अजीव छे अने तेना निमित्ते थतो रागादिभाव ते कलुषित अने मलिन छे. रागादि विकारभाव मोहकर्मनो भाव होवाथी पुद्गलनो ज विकार छे, ए ज्ञायकनी अवस्था नथी. हवे कहे छे के भावक जे कर्म छे तेनाथी थयेलो विकार ज्यारे चैतन्यना उपयोगना अनुभवमां आवे छे त्यारे उपयोग पण विकारी थई रागादिरूप मलिन देखाय छे. परंतु चैतन्यनी शक्तिनी व्यक्ति तो ज्ञानदर्शन-उपयोगमात्र छे. एटले के चैतन्यना सामर्थ्यनी व्यक्ति ज्ञान-दर्शनना परिणामरूप छे पण रागद्वेषना परिणामरूप नथी. चैतन्यमां तो अनंत शक्तिओनुं सामर्थ्य भर्युं छे. ज्ञानस्वभावनुं सामर्थ्य, दर्शनस्वभावनुं सामर्थ्य, सुखनुं, आनंदनुं, सत्तानुं, जीवतरनुं एम अनंत- शक्तिओनुं सामर्थ्य भगवान आत्मामां भर्युं छे. आवा अनंत सामर्थ्यमंडित चैतन्यनी दशा तो ज्ञान-दर्शन-उपयोगमय शुद्ध ज होय छे. उपयोगमां बधुं जणाय छे तेथी अहीं उपयोगनी मुख्यताथी वात लीधी छे.