Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१९८ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-२ अने अनंत ज्ञान (प्रतिसमय) वह्या करे तोपण कदीय खूटे नहि एवी (अव्यय) शाश्वत निधि छीए. अरे! आवडो अने आवो आत्मा छे एम एने प्रतीतिमां आवतुं नथी. कारण के हुं पैसावाळो, बंगलावाळो, कुटुंबवाळो, रागवाळो, पुण्यवाळो छुं एम आत्माने पामर तरीके मान्यो छे. परंतु हुं तो जगतमां एक अनंत अनंत गुणोना सामर्थ्यथी भरेलुं महानिधान आत्मा छुं एम धर्मीने परिणति पोकार करे छे. वस्तु तो वस्तु ज छे. पण एने जाणे कोण? ज्ञानीनी परिणति जाणे छे के हुं आवो महानिधि छुं.

‘मोह’ पद बदलीने मान, माया, लोभ लेवां. ते बधां भावक कर्मनां भाव्य छे. ए बधां ज्ञायकनां स्वरूप नथी. ए मारां-ज्ञायकनां नथी. शरीर, वाणी, मन अने पांच इन्द्रियो मारां नथी. आम सोळ पद जुदां जुदां व्याख्यानरूप करवां, अने बीजां पण विचारवां. असंख्य प्रकारना शुभाशुभ भाव छे ते बधाय लेवा. ए बधाय जे विभावभाव छे ते हुं नथी, केमके ए बधा भावक-कर्मना भाव छे, ज्ञायकना भाव नथी अने हुं तो एक ज्ञायकमात्र ज छुं.

[प्रवचन नं. ८१-८२ * दिनांक १९-२-७६ थी २०-२-७६]