अथ ज्ञेयभावविवेकप्रकारमाह–
णत्थि मम धम्मआदी बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को। तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति।। ३७ ।।
तं धर्मनिर्ममत्वं समयस्य विज्ञायका ब्रुवन्ति।। ३७ ।।
हवे ज्ञेयभावना भेदज्ञाननो प्रकार कहे छेः-
–ए ज्ञानने, ज्ञायक समयना धर्मनिर्ममता कहे. ३७.
*गाथार्थः– [बुध्यते] एम जाणे के [धर्मादिः] ‘आ धर्म आदि द्रव्यो [मम नास्ति] मारां कांई पण लागतांवळगतां नथी, [एकः उपयोगः एव] एक उपयोग छे ते ज [अहम्] हुं छुं’- [तं] एवुं जे जाणवुं तेने [समयस्य विज्ञायकाः] सिद्धांतना अथवा स्वपरना स्वरूपरूप समयना जाणनारा [धर्मनिर्ममत्वं] धर्मद्रव्य प्रत्ये निर्ममत्व [ब्रुवन्ति] कहे छे.
टीकाः– पोताना निजरसथी जे प्रगट थयेल छे, निवारण न करी शकाय एवो जेनो फेलाव छे तथा समस्त पदार्थोने ग्रसवानो (गळी जवानो) जेनो स्वभाव छे एवी प्रचंड चिन्मात्रशकित वडे ग्रासीभूत करवामां आव्यां होवाथी, जाणे अत्यंत अंतर्मग्न थइ रह्यां होय-ज्ञानमां तद्राकार थइ डूबी रह्यां होय एवी रीते आत्मामां प्रकाशमान छे एवां आ धर्म, अधर्म, आकाश, काळ, पुद्गल, अन्य जीव-ए सर्व परद्रव्यो मारां संबंधी नथी; कारण के टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावपणाथी परमार्थे अंतरंगतत्त्व तो हुं छुं अने ते परद्रव्यो मारा स्वभावथी भिन्न स्वभाववाळां होवाथी परमार्थे बाह्यतत्त्वपणाने छोडवा असमर्थ छे (केम के पोताना स्वभावनो अभाव करी ज्ञानमां पेसतां नथी.) वळी अहीं स्वयमेव, (चैतन्यमां) नित्य उपयुक्त एवो अने परमार्थे एक, अनाकुळ आत्माने ____________________________________________________________ * आ गाथानो अर्थ आम पण थाय छेः-‘धर्म आदि द्रव्यो मारां नथी. हुं एक छुं’