२०० ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-२
स्वयमयमुपयोगो बिभ्रदात्मानमेकम्।
प्रकटितपरमार्थैर्दर्शनज्ञानवृत्तैः
कृतपरिणतिरात्माराम एव प्रवृत्तः।। ३१ ।।
____________________________________________________________ अनुभवतो एवो भगवान आत्मा ज जाणे छे के-हुं प्रगट निश्चयथी एक ज छुं माटे, ज्ञेयज्ञायकभावमात्रथी ऊपजेलुं परद्रव्यो साथे परस्पर मळवुं (मिलन) होवा छतां पण, प्रगट स्वादमां आवता स्वभावना भेदने लीधे धर्म, अधर्म, आकाश, काळ, पुद्गल अने अन्य जीवो प्रत्ये हुं निर्मम छुं; कारण के सदाय पोताना एकपणामां प्राप्त होवाथी समय (आत्मपदार्थ अथवा दरेक पदार्थ) एवो ने एवो ज स्थित रहे छे; (पोताना स्वभावने कोई छोडतुं नथी). आ प्रकारे ज्ञेयभावोथी भेदज्ञान थयुं.
अहीं आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [इति] आम पूर्वोक्त प्रकारे भावकभाव अने ज्ञेयभावोथी भेदज्ञान थतां [सर्वैः अन्यभावैः सह विवेके सति] सर्व अन्यभावोथी ज्यारे भिन्नता थई त्यारे [अयं उपयोगः] आ उपयोग छे ते [स्वयं] पोते ज [एकं आत्मानम्] पोताना एक आत्माने ज [बिभ्रत्] धारतो, [प्रकटितपरमार्थेः दर्शनज्ञानवृत्तैः कृतपरिणतिः] जेमनो परमार्थ प्रगट थयो छे एवां दर्शनज्ञानचारित्रथी जेणे परिणति करी छे एवो, [आत्म–आरामे एव प्रवृत्तः] पोताना आत्मारूपी बाग (क्रीडावन) मां ज प्रवृत्ति करे छे, अन्य जग्याए जतो नथी.
भावार्थः– सर्व परद्रव्योथी तथा तेमनाथी उत्पन्न थयेला भावोथी ज्यारे भेद जाण्यो त्यारे उपयोगने रमवाने माटे पोतानो आत्मा ज रह्यो, अन्य ठेकाणुं न रह्युं. आ रीते दर्शनज्ञानचारित्र साथे एकरूप थयेलो ते आत्मामां ज रमण करे छे एम जाणवुं. ३१.
हवे ज्ञेयभावना भेदज्ञाननो प्रकार कहे छे. आ आत्मा सिवाय सर्वज्ञ परमेश्वर, सिद्ध अने निगोदथी मांडी बीजा बधाय अनंत आत्माओ अने छये द्रव्यो जे ज्ञेय छे ते ज्ञेयोथी भेदज्ञाननी हवे व्याख्या करे छे.
ज्ञायक एवो जीवनो पोतानो स्वभाव छे. तेथी ते ज्ञेयोने जाणे छे. जे जाणवानुं थाय छे ए कांई ज्ञेयनी परिणति नथी, परंतु ज्ञाननी परिणति छे. छतां ए ज्ञाननी परिणति पोतानी छे एम न मानतां ज्ञेयने पोताना माने छे ए मिथ्यादर्शन छे. देव,