Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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२०८ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-२ प्रत्ये निर्मम छुं. आ त्रणलोकना नाथ तीर्थंकरदेव प्रति निर्मम छुं. तीर्थंकर मारा नथी, देव मारा नथी, गुरु अने शास्त्र मारां नथी. ए तो शुभभाव होय छे त्यारे तेमना प्रति लक्ष जाय छे. पण शुभभाव कांई ते परने लईने थाय छे तथा ए शुभभाव थयो माटे धर्म छे एम नथी. ए शुभभाव अने बधी परवस्तु परज्ञेयमां जाय छे. ते परज्ञेयने हुं मारा ज्ञानमां रहीने, मारा अतीन्द्रिय आनंदना स्वादने वेदतो थको, माराथी जुदा जाणुं छुं. आनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे. सम्यग्द्रष्टिने जेवुं स्वरूप छे तेवी तेनी प्रतीति थई छे. ज्ञानस्वरूप चैतन्यसूर्य भगवान आत्मा सिवायना परज्ञेयो तेमना बाह्यतत्त्वपणाने छोडवा असमर्थ छे. अने हुं अंतरंगतत्त्व छुं जे मारा अनुभवमां आनंदने जाणतो थको परने भिन्न जाणुं छुं. माटे हुं ए सर्व परज्ञेयो प्रति निर्मम छुं- आवुं ज्ञानी जाणे छे.

ज्यारे अज्ञानी मारी पत्नी, मारा दीकरा, मारुं मकान-एम माने छे. पण भाई! आ देह तारो नथी तो वळी मकान आदि तारां कयांथी आव्यां? अरे! अंदर जे राग छे ते पण तारो नथी तो पछी परचीज तारी कयांथी आवी? ज्ञानी एम जाणे छे के हुं तो ज्ञान-आनंदनो अनुभवनारो छुं. रागनो अनुभवनारो ते हुं नहि. अहो! शुं अद्भुत टीका छे! एकलां अमृत रेडयां छे! अहीं एम कहे छे के-धर्मी एने कहीए जे पोताना ज्ञान-आनंदरूपे पोताथी ज (स्वयमेव) परिणमे. एमां पर संबंधी ज्ञान आवे पण ए पर संबंधी ज्ञान कहेवुं ए व्यवहार छे. खरेखर तो ए पोतानुं ज्ञान छे. ४७ शक्तिओमां एक सर्वज्ञत्वशक्ति छे. एनुं वर्णन करतां ‘आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्ति’ एम कह्युं छे. सर्वज्ञ एटले सर्वने जाणे एम नहि. पण सर्वनुं ज्ञान ए आत्मानुं ज्ञान छे. सर्वज्ञतानो स्वभाव पोतानो छे अने ते आत्मज्ञपणुं छे. तेथी ज्ञानी कहे छे के-हुं जे अत्यारे जाणुं छुं ए जाणवुं माराथी मारामां थयेलुं छे, परज्ञेयने लईने थयुं नथी. अने तेथी अतीन्द्रिय आनंदने वेदतो एकलो हुं परथी भिन्न छुं, निर्मम छुं. कारण के सदाय पोताना एकपणामां प्राप्त होवाथी आत्मपदार्थ एवो ने एवो ज स्थित रहे छे. एटले जाणवाना स्वभावमां ज स्थित रहे छे. पोताना स्वभावने कोई पदार्थ छोडतुं नथी.

आ प्रकारे ज्ञेयभावोथी भेदज्ञान थयुं. आत्मा परज्ञेयोथी भिन्न थयो.

अहीं आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश ३१ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

इति सर्वैः अन्यभावैः सह विविके सति-आम पूर्वोक्त प्रकारे भावकभाव अने ज्ञेयभावोथी भेदज्ञान थतां-एटले शुं कह्युं? के आ आत्मा जे छे ते आनंद अने ज्ञानस्वरूप छे. ते पुण्य-पाप तथा राग-द्वेषना विकारी भावथी भिन्न छे. हवे अनादिथी जीव रखडवानुं तो करी