Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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गाथा ३८ ] [ २१९ जाणीने, तेनुं श्रद्धान अने तेनुं आचरण करीने सम्यक् प्रकारे एक आत्माराम थयो. ते हवे पोते पोताने केवो अनुभवे छे ते कहे छेः-

‘हुं एवो अनुभव करुं छुं के-हुं चैतन्यमात्र ज्योतिरूप आत्मा छुं के जे मारा ज अनुभवथी प्रत्यक्ष जणाय छे.’ अग्निनी ज्योति, दीवानी ज्योति होय छे ए तो जड छे. आ तो चैतन्यमात्र ज्योति एटले देखवा-जाणवाना स्वभावरूप ज्योति हुं आत्मा छुं. ते मारा पोताना ज अनुभवथी प्रत्यक्ष जणाय छे. वजन अहीं छे के मारा अनुभवथी एटले आनंदना वेदनथी हुं मारा आत्माने जाणुं छुं. परथी, विकल्पथी के निमित्तथी नहि पण मारा ज अनुभवथी हुं आत्माने प्रत्यक्ष जाणुं छुं. समयसार नाटकमां बनारसीदासे कह्युं छे ने केः-

‘वस्तु विचारत ध्यावतैं, मन पावै विश्राम;
रस स्वादत सुख ऊपजै, अनुभौ याकौ नाम.’

जेमां आत्माना आनंदना रसनो स्वाद आवे तेवा वेदनथी हुं मारा आत्माने प्रत्यक्ष जाणुं छुं. आ जैन परमेश्वरनो मार्ग छे. कोईने एम लागे के शुं मार्ग आवो हशे? पण भाई! भगवान जिनेश्वरदेवनी दिव्यध्वनिमां कहेलो आ मार्ग छे. वर्तमानमां विदेहक्षेत्रमां श्री सीमंधर भगवान साक्षात् अरिहंतपदे बिराजे छे. सो इन्द्रो अने गणधरो नतमस्तक थई बहु विनयपूर्वक तेमनी दिव्यध्वनि सांभळे छे. ए दिव्यध्वनिमां भगवाने कहेलो मार्ग आ छे. बाकी दया पाळो, व्रत करो, दान करो, जात्रा करो इत्यादि कांई जैनमार्ग नथी. एवो मार्ग शुं भगवान कहेता हशे? एवुं तो कुंभारेय कहे छे. भाई! आ जैनमार्गनी-मोक्षमार्गनी वात महाभाग्यशाळी होय एने सांभळवा मळे छे.

अहीं छद्मस्थदशामां समकिती धर्मात्मा आत्माने केवो अनुभवे छे ते बतावतां कहे छे के-चैतन्यमात्र ज्योतिरूप हुं आत्मा छुं. अहाहा! त्रिकाळी ज्ञानसत्त्व, सर्वज्ञ- स्वभाव, ‘ज्ञ’भाव, एक ज्ञायकभावस्वरूप चैतन्यमात्र झळहळ ज्योति हुं छुं. राग अने पर हुं नथी. एक समयनी प्रगट पर्याय जेटलो पण हुं नथी. अने आ ज्ञायकस्वभावी आत्मा मारा ज अनुभवथी प्रत्यक्ष जणाय छे. अहाहा! आ ज्ञायकभावस्वरूप आत्मा मारा स्वसंवेदनज्ञानमां प्रत्यक्ष जणाय छे. एनो अनुभव करवामां कोई परना- निमित्तना के विकल्पना सहारानी जरूर नथी. सीधुं ज्ञान पोताने अने परने जाणे छे एवो हुं छुं.

अरे! जन्म-मरणना चोर्याशी लाख योनिना आंटा खाईने अज्ञानी मरी गयो छे. जीवती ज्योतने एणे मारी नाखी छे. आ चैतन्यमात्र ज्योतिरूप आत्मा ते हुं एम नहि स्वीकारतां एक समयनी रागादि पर्याय अने विकार ते हुं एम जेणे मान्युं तेणे चैतन्यजीवनने हणी नाख्युं छे, केम के जीवता सत्ना सत्त्वनो तेणे नकार कर्यो छे. वस्तु तो वस्तु छे, वस्तुनो नाश थतो नथी पण पर्यायमां चैतन्यजीवननो घात थाय छे.