Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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२२० ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-२

अहीं चिन्मात्र ज्योति हुं आत्मा छुं एम कहीने जीवनो स्वभाव ज्ञानमात्र छे एम कह्युं. ज्ञानमात्र कहेतां एमां बीजा अनंत गुणो छे तेनो निषेध करवो नथी, परंतु रागादि विकारनो निषेध करवो छे. अहाहा! हुं चिन्मात्र ज्योतिस्वरूप आत्मा छुं एवो सम्यग्द्रष्टिने सम्यग्दर्शनना काळमां अनुभव थाय छे.

हवे कहे छे-‘चिन्मात्र आकारने लीधे हुं समस्त क्रमरूप तथा अक्रमरूप प्रर्वतता व्यावहारिक भावोथी भेदरूप थतो नथी माटे हुं एक छुं.’ नरकगति, मोक्षगति इत्यादि गतिओ क्रमे थाय छे. एक पछी एक थाय छे तेथी तेने क्रमरूप भाव कह्यो छे. अने पर्यायमां कषाय, लेश्या, ज्ञाननो उघाड वगेरे एकसाथे होय छे तेथी तेमने अहीं अक्रमरूप भाव कह्या छे. आ बधा व्यावहारिक भावो छे. अहीं क्रम एटले पर्याय अने अक्रम एटले गुण एम नथी लेवुं. परंतु एक पछी एक थती गतिना भावने क्रमरूप अने उद्रयनो रागादि भाव, लेश्यानो भाव अने ज्ञाननी एक समयनी पर्यायनो भाव इत्यादि एक साथे होय छे तेमने अक्रमरूप लीधा छे. आ सघळा क्रम-अक्रमरूप प्रवर्तता व्यावहारिक भावोथी भेदरूप थतो नथी माटे हुं एक छुं. आ व्यावहारिक भावोथी भिन्न मारी चीज छे, केमके हुं तो अभेद, अखंड, आनंदकंद प्रभु एक चिन्मात्र वस्तु छुं.

अहाहा! एक ज्ञायकभावपणाने लीधे हुं क्रम-अक्रमरूप प्रवर्तता व्यावहारिक भावोथी भेदरूप थतो नथी माटे एक छुं. तेथी आ क्रम-अक्रमरूप व्यावहारिक भावोनी अस्ति नथी एम न समजवुं. गति, रागादि अवस्था, लेश्याना परिणाम के ज्ञाननी पर्याय इत्यादि पर्याय छे ज नहि एम नथी. तेमनी (पोतपोताथी) अस्ति तो छे पण तेमनी अस्तिथी हुं अखंड आनंदनो नाथ प्रभु भेदरूप थतो नथी. आवो धर्मनो उपदेश!! हवे आमां (अज्ञानी) माणस शुं करे? बीजे तो कहे के उपवासादि करो एटले करी नाखे अने माने के थई गयो धर्म. पण ए तो मिथ्यात्वनुं पाप छे, बापु!

ज्यारे आत्मानुं सम्यग्दर्शन थयुं अने तेनुं आचरण कर्युं त्यारे आत्मा केवो जाण्यो एनी वात करे छे. चिन्मात्रपणाने लीधे एटले अखंड एक ज्ञानस्वभावने लईने ए क्रमे थती गति अने अक्रमे थती ज्ञान पर्याय, राग, लेश्या, कषाय-ए सघळा व्यावहारिक भेदोथी हुं भेदरूप थतो नथी. अहाहा! जैन दर्शन आवुं सूक्ष्म अने अपूर्व छे. आवी वात बीजे कयांय छे नहि. आ तो परमेश्वर जिनेश्वरदेव जेमणे एक समयमां त्रणकाळ-त्रणलोकने जोया ए भगवानना श्रीमुखेथी जे दिव्यध्वनि-ॐध्वनि आवी ए वात संतोए आगममां रची छे.

अहाहा....! पर्याय अने रागथी खसीने द्रष्टि भगवानने भाळवा गई, ए ज्ञाननेत्र निज चैतन्यने जोवां गयां त्यां चैतन्यने आवो जोयो के-क्रम अने अक्रमे प्रवर्तता भेदोथी हुं भेदातो नथी. हुं तो त्रिकाळ एकरूप छुं, अभेद छुं. अरे! प्रभु केवळीना