गाथा ३८ ] [ २२१ विरह पडया अने मनःपर्ययज्ञान पण रह्युं नहि. परंतु वस्तुस्थितिने बतावनारां आ शास्त्र रही गयां. अहो! आचार्योए शास्त्रो रचीने केवळज्ञानने भूलावी दीधुं छे! भाई! तुं कोण छे? केवडो छे? कया प्रकारे आत्माने जाणे त्यारे यथार्थपणे जाण्यो कहेवाय? के पर्यायना भेदथी भेदाय नहि एवो शुं चिन्मात्र एक छुं एम जाणे त्यारे आत्माने जाण्यो कहेवाय, कठण पडे, पण मार्ग तो आ छे, भाई! एने धीमे धीमे समजवो जोईए. आ चोरासी लाखना अवतारमां तुं दुःखी-दुःखी थई रह्यो छे. ए दुःखमांथी आ समज्या विना छूटकारो थाय एम नथी.
भाई! तें बहारनी संभाळ तो घणी बधी करी छे. पण अंदर जीवती जागती ज्योतस्वरूप जे चैतन्य भगवान पडयो छे तेनी अनंतकाळमां एक क्षणमात्र पण संभाळ करी नथी. ए चैतन्य भगवान सम्यग्ज्ञानमां केवो जणायो ते अहीं कहे छे. कहे छे के क्रमे-अक्रमे प्रवर्तता व्यावहारिक भावोथी हुं भेदरूप थतो नथी एवो अभेद अखंडानंद स्वरूप एक छुं. वीतराग देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो जे विकल्प ते विकल्पथी के ‘हुं चिन्मात्र छुं’ एवा विकल्पथी भेदरूप नहि थतो एवो अभेद एकरूप हुं छुं.
वस्तु आत्मा त्रिकाळ निर्विकल्प छे. पहेलां ‘अनसूया’नुं नाटक भजवातुं ते जोयेलुं एमां माता पोताना बाळकने सूवडावे त्यारे एम गाती के-शुद्धोऽसि, बुद्धोऽसि उदासीनोऽसि, निर्विकल्पोऽसि – एटले के बेटा! तुं शुद्ध छे, ज्ञाननो पिंड छे, आखी दुनियामां तारी चीज जुदी छे माटे उदासीन छे, निर्विकल्प छे. आ तो नाटकमां पहेलां आ आवतुं. तुं निर्विकल्प छे एटले पर्यायमां थता क्रमरूप अने अक्रमरूप भावोथी भेदाय एवी तारी चीज नथी. वस्तु-आत्मा तो भेद रहित अभेद छे एम जाणे त्यारे आत्मा जाण्यो कहेवाय. आनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. अहीं ‘हुं एक छुं’ ए बोल पूरो थयो. हवे ‘हुं शुद्ध छुं’ ए बोल कहे छे.
‘नर, नारक आदि जीवना विशेषो, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा बंध अने मोक्षस्वरूप जे व्यावहारिक नव तत्त्वो तेमनाथी टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावरूप भाव वडे, अत्यंत जुदो छुं माटे हुं शुद्ध छुं.’
अनादिथी जीव पुण्यभाव, पापभाव, आस्रवभाव अने बंधभावमां रोकायेलो छे. अनादिथी एने मोक्ष कयां छे? पण संवर, निर्जरा, मोक्षना विकल्प छे. अने हवे ज्यारे भान थयुं त्यारे अंतर-एकाग्रता सहित जे संवर, निर्जरा अने मोक्षनी पर्याय प्रगटे ते पर्याय जेवडो हुं नथी. आ व्यावहारिक नवतत्त्वोथी हुं जुदो छुं. आ पुण्य, पाप, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा अने मोक्ष ए बधां व्यावहारिक नवतत्त्वो छे. ए सर्वथी हुं भिन्न छुं. नियमसार गाथा ३८ मां कह्युं छे के-सात तत्त्वो नाशवान छे. संवर, निर्जरा अने मोक्षनी पर्याय पण नाशवान छे. अने हुं एक अविनाशी छुं. मारा