गाथा ३८ ] [ २२३ भगवान आत्माने स्पर्शता नथी. अंदर पर्यायमां थता रागादि विकारी भावो भगवान चैतन्यस्वभावने स्पर्शता नथी. ए तो ठीक, पण भगवान ज्ञायकस्वभावी ध्रुव आत्माना आश्रये प्रगट थएली निर्मळ पर्याय पण द्रव्यने स्पर्शती नथी. प्रवचनसार गाथा १७२ मां अलिंगग्रहणना १९-२० बोलमां आ वात लीधी छे. १९ मा बोलमां एम लीधुं छे के-‘लिंग एटले के पर्याय एवुं जे ग्रहण एटले के अर्थावबोधविशेष ते जेने नथी ते अलिंग-ग्रहण छे; आ रीते आत्मा पर्यायविशेषथी नहि आलिंगित एवुं शुद्ध द्रव्य छे.’ अहीं कहे छे के पर्याय द्रव्यने स्पर्शती नथी. २० मा बोलमां एम लीधुं छे के-‘लिंग एटले प्रत्यभिज्ञाननुं कारण एवुं जे ग्रहण एटले के अर्थावबोधसामान्य ते जेने नथी ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्मा द्रव्यथी नहि आलिंगित एवो शुद्ध पर्याय छे. शुं कहे छे? वेदन पर्यायमां छे, त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यमां नथी. द्रव्य तो अक्रिय छे. तेथी द्रव्य पर्यायने स्पर्शतुं नथी. भाई! आ तो वस्तुस्थितिनी अलौकिक वातो छे. ए ज अहीं कहे छे के-आ नवतत्त्वना व्यवहारिक भावोथी, अखंड एक चैतन्यस्वभावपणाने लीधे हुं जुदो छुं अने तेथी हुं शुद्ध छुं. आ ‘शुद्ध छुं’ नो बोल पूरो थयो.
हवे त्रीजो बोल ‘दर्शन ज्ञानमय’ नो कहे छे, ‘चिन्मात्र होवाथी सामान्य- विशेष उपयोगात्मकपणाने उल्लंघतो नथी माटे हुं दर्शनज्ञानमय छुं. अहाहा! चिन्मात्र कहेतां हुं चैतन्यस्वभावमात्र छुं. दया, दान, व्रतादि विकल्प ते हुं नहि, अल्पज्ञता ते पण हुं नहि अने हुं ज्ञानदर्शनवाळो एम (भेद) पण हुं नहि. हुं तो चिन्मात्र होवाथी दर्शन-ज्ञानमय छुं. अहीं चैतन्यसामान्य ते दर्शन छे अने चैतन्यविशेष ते ज्ञान छे. चैतन्य-स्वभावी भगवान आत्मा सामान्य-विशेष उपयोगात्मकपणाने ओळंगतो नहि होवाथी हुं ज्ञानदर्शनमय छुं. त्रिकाळी वस्तुपणे आवो छुं. आ त्रीजो बोल थयो.
हवे चोथो बोल ‘अरूपी’ नो कहे छेः ‘स्पर्श, रस, गंध, वर्ण जेनुं निमित्त छे एवा संवेदनरूपे परिणम्यो होवा छतां पण स्पर्शादिरूपे पोते परिणम्यो नथी माटे परमार्थे हुं सदाय अरूपी छुं.’ जुओ, स्पर्श, रस आदिनुं ज्ञान जे थाय छे ते मारा पोताथी थाय छे, निमित्तथी नहि, अने स्पर्शादि निमित्तनी हयाती छे तो मारामां ज्ञान थाय छे एम पण नथी, तत्संबंधी ज्ञानरूपे परिणमवानी योग्यता मारामां सहज स्वभावथी ज छे. ए स्पर्श, रस, गंध आदिने जाणवा छतां ते स्पर्शादि मारामां आवता नथी, हुं स्पर्शादिरूपे परिणमतो नथी. मारुं ज्ञान अने स्पर्शादि भिन्न भिन्न रहे छे. आम होवाथी हुं परमार्थे सदाय अरूपी छुं. आवो आत्मा ज्यां सुधी जाणे अने अनुभवे नहि त्यांसुधी जीव सम्यग्द्रष्टि थतो नथी. सम्यग्दर्शन विनानां जे व्रत अने तप करे ए बधां बाळव्रत अने बाळतप एटले के मूर्खाई भर्यां व्रत अने तप छे. व्रत, तप, जात्रा वगेरेना विकल्प तो शुभभाव छे. आ शेत्रुंजो अने सम्मेदशिखरना डुंगरे चढे अने जात्रा करे ए तो पुण्यभाव छे, राग छे, धर्म नहि, भाई! अंदर त्रणलोकनो