२२४ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-२ नाथ, अखंडानंदस्वरूप चैतन्यनो डुंगर छे एमां जाय तो साची जात्रा छे. ए धर्मनी रीत छे.
प्रश्नः– ‘स्पर्श, रस, गंध, वर्ण जेनुं निमित्त छे एवा संवेदनरूपे परिणम्यो होवा छतां....’ एम पाठमां निमित्त कह्युं छे ने?
उत्तरः– निमित्त कह्युं छे एनी कोण ना पाडे छे? पण एनो अर्थ शुं? स्पर्शादि निमित्त छे एटलुं ज मात्र. स्पर्शादि निमित्तथी संवेदन (ज्ञान) थाय छे एम नथी. ज्ञानरूपे परिणमवानी मूळशक्ति तो मारी पोतानी छे. हुं संवेदनरूपे परिणम्यो छुं ए मारा शुद्ध उपादानथी छे, निमित्तथी नहि. स्पर्शादि निमित्तथी हुं ज्ञानरूपे परिणमुं छुं एम तो नथी पण स्पर्शादि निमित्तनी हयाती छे तेना कारणे मने ज्ञानरूप परिणमन छे एम पण नथी. तथा स्पर्शादिनुं ज्ञान थतां ज्ञान स्पर्शादिरूप थई जाय छे एम पण नथी. संवेदन (ज्ञान) तो मने माराथी थयुं छे अने ए मारुं छे, स्पर्शादिनुं नथी तेथी हुं परमार्थे सदाय अरूपी छुं. कोई एम कहे के संसार अवस्थामां जीव रूपी छे. केमके कर्म जे रूपी छे एनो जीवने संबंध छे माटे ते रूपी छे. पण ए वात बराबर नथी. निमित्तनी अपेक्षाए रूपी कह्यो छे (उपचारथी). खरेखर तो जीव सदाय अरूपी ज छे.
हवे कहे छे-‘आम सर्वथी जुदा एवा स्वरूपने अनुभवतो आ हुं प्रतापवंत रह्यो.’ अहीं ज्ञानी एम जाणे छे के-सर्वथी भिन्न एटले रागादि अने परज्ञेयोथी भिन्न एवा निज चैतन्यस्वरूपने अनुभवतो आ हुं प्रतापवंत रह्यो. मारी सत्ता प्रतापवंत छे, स्वतंत्रपणे शोभायमान छे. मारा प्रतापने कोई खंडित करे अने स्वतंत्रतानी शोभाने कोई लूंटे एवी जगतमां कोई चीज नथी. ‘आ हुं प्रतापवंत रह्यो’-एमां ‘आ’ कहीने आत्मवस्तुनुं प्रत्यक्षपणुं बताव्युं छे. मारा प्रतापथी हुं स्वसंवेदनमां आव्यो छुं, निमित्तना प्रतापथी के अन्यथी नहि.
‘एम प्रतापवंत वर्तता मने, जोके (मारी) बहार अनेक अनेक प्रकारनी स्वरूपनी संपदा वडे समस्त परद्रव्यो स्फुरायमान छे, तोपण कोई पण परद्रव्य परमाणुमात्र पण मारापणे भासतुं नथी.’ अहाहा! धर्मी जीव एम जाणे छे के-हुं निजस्वरूपने अनुभवतो थको स्वतंत्रपणे शोभायमान छुं. अने जगतना समस्त परद्रव्यो-पुद्गलादि पदार्थो अने रागादि आस्रवो पोताना स्वरूपनी संपदाथी प्रगट छे, हयात छे. परंतु ए समस्त पर द्रव्यो-अनंत पुद्गल रजकणो, अनंत आत्माओ अने रागादि भावो मने मारापणे भासता नथी. परद्रव्य परमाणु मात्र पण एटले पुद्गलनो एक रजकण के रागनो एक अंश पण मारो छे एम मने भासतुं नथी. ज्ञानी एम कहे छे के-दया, दान, व्रतादिनो जे विकल्प ऊठे छे के व्यवहाररत्नत्रयनो जे विकल्प छे ते मने मारापणे भासतो नथी. अहाहा! आने आत्माने जाण्यो कहेवाय अने आ धर्म छे.