Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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२३० ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-२

* कळश ३२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

जेम समुद्रनी आडुं कोई आवी जाय त्यारे जळ नथी देखातुं अने ज्यारे आड दूर थाय त्यारे जळ प्रगट थाय. प्रगट थतां, लोकने प्रेरणायोग्य थाय के ‘आ जळमां सर्व लोक स्नान करो.’ तेवी रीते आ आत्मा विभ्रमथी आच्छादित हतो. एटले के दया, दान, भक्तिना जे रागरूप परिणाम छे तेनाथी मने लाभ (धर्म) थशे एवा मिथ्या भ्रममां हतो. ते रागनी रुचिमां ज रोकाई गयो हतो. तेथी भगवान आत्मा आच्छादित हतो, ढंकाई गयो हतो, त्यारे पोतानुं स्वरूप नहोतुं देखातुं. रागनी रुचिनी आडमां आनंदथी भरेलो भगवान देखातो न हतो. बहिर्लक्षी वृत्तिओना प्रेममां ज्ञान अने आनंदना जळथी भरेलो भगवान चैतन्यसमुद्र नहोतो देखातो.

हवे विभ्रम दूर थयो. एटले के दया, दाननो अने भक्तिनो विकल्प छे ते गमे तेवो मंद हो तोपण राग छे, धर्म नथी. आत्माना स्वरूपनी ए (राग) चीज नथी. ए राग बंधनुं कारण छे, हेय छे. आम विभ्रम दूर थयो त्यारे जेवुं छे तेवुं यथार्थ स्वरूप प्रगट थयुं. अतीन्द्रिय आनंदनो नाथ प्रगट थयो. सम्यग्दर्शन-ज्ञान थयां एटले आनंद प्रगटयो. तेथी ‘हवे तेना वीतरागविज्ञानरूप शांतरसमां एकी वखते सर्व लोक मग्न थाओ’ एम आचार्यदेवे प्रेरणा करी छे. पूर्ण आनंदस्वरूप पोताना भगवाननो ज्यां पूर्ण आश्रय कर्यो त्यारे पर्यायमां पूर्ण आनंद प्रगट थयो. त्यारे कहे छे के आमां बधाय जीवो एक साथे आवीने स्नान करो अने संसारनो मेल धोई नाखे.

वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरनो मार्ग जुदो छे, भाई! व्रत, तप, भक्ति आदिथी धर्म मनाववो ए तो रागथी धर्म मनाववो छे. पण ए जैनधर्म नथी, ए तो अजैननो मार्ग छे. परनी दया पाळवानो भाव छे ए राग छे. श्री पुरुषार्थसिद्धयुपायमां आचार्य अमृतचंद्रस्वामीए रागने आत्मानी हिंसानो भाव कह्यो छे. सांभळ, प्रभु! (साचुं तत्त्व) तें सांभळ्‌युं नथी. आ पूर्णानंदनो नाथ जीवती चैतन्यज्योत छे. एवो आत्माने यथार्थ मानवो ते (निज) आत्मानी दया छे. तेने (आत्माने) ओछो, अधिक के विपरीत मानवो ते आत्मानी हिंसा छे.

श्री कुंदकुंदाचार्यदेव अने श्री अमृतचंद्राचार्यदेव तो परमेष्ठी हता. तेओ वीतराग- शांतरसमां निमग्न हता, अने परम करुणा करीने जगतने पण तेमां मग्न थवानी तेमणे प्रेरणा आपी छे. एम के अमे शांतरसमां निमग्न छीए तो प्रभु! तमे एमां केम निमग्न न हो? प्रभु! तमे पण आत्मा छो ने? दुनियाना मान-अपमानने छोडीने भगवान निर्मान आत्मानुं अहंपणुं स्थापित थतां वीतराग शांतरस प्रगटे छे. ए शांतरसमां सौ निमग्न थाओ एवी आचार्ये प्रेरणा करी छे.

अथवा एवो पण अर्थ थाय के ज्यारे आत्मानुं अज्ञान दूर थाय त्यारे केवळज्ञान