Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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२३२ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-२ हो, पण ते प्रत्येक स्वांगने मात्र ज्ञाता-द्रष्टापणे जाणे ज छे. बंधना स्वांगने पण मात्र जाणे अने मोक्षना स्वांगने पण मात्र जाणे छे. रागादिनो भाव होय तेनो पण सम्यग्द्रष्टि ज्ञाता ज छे. ए ज्ञाता छे ते ज खरेखर ज्ञायक छे.

सम्यग्द्रष्टि वास्तविक स्वांगना जोनारा छे अने जे मिथ्याद्रष्टिओनी सभा छे तेने पण यथार्थ स्वरूप बतावे छे. नृत्य करनारा अर्थात् बदलनारा-परिणमनारा जीव- अजीव द्रव्यो छे. ते बन्ने एकरूप लईने प्रवेश करे छे. जीव द्रव्य राग अने शरीरनी साथे एक छे एवा स्वांग आवे छे, वळी जीव र्क्ता अने पर एनुं कार्य, जीव र्क्ता अने राग एनुं कार्य एवा (र्क्ताकर्मना) स्वांग पण आवे छे. त्यां सम्यग्द्रष्टि जीव-अजीवना अने स्वभाव-विभावना भिन्न भिन्न स्वरूपने यथार्थ जाणे छे. सम्यग्द्रष्टिने पण राग आवे, पण ते रागने पोताथी भिन्न जाणे छे. ते तो आ सर्व स्वांगोने कर्मकृत जाणी शांतरसमां ज मग्न रहे छे, रागादि-दया, दान अने काम, क्रोध इत्यादि जे विकल्पो आवे ते बधा कर्मकृत स्वांग छे, मारा पोताना स्वांग नथी. हुं तो एक मात्र ज्ञायकस्वरूप छुं एम अंतरएकाग्रता करी ते शांतरसमां लीन रहे छे. अहाहा! भगवान आत्मा आनंद अने शांतरसनो पिंड प्रभु एकलो ज्ञायक छे. तेनुं जेने अनुभवमां सम्यक् भान थयुं ते जीव रागादि के शरीरादिना संयोगने पोताथी भिन्न जाणे छे अने आत्माना आनंदना रसमां निमग्न थाय छे.

अने मिथ्याद्रष्टि जीवो जीव-अजीवनो भेद जाणता नथी. ए तो आ राग मारो, शरीरादि मारां एम राग अने शरीरादि साथे एकपणुं करी जाणे छे. रागने तो भावकभाव कह्यो छे. भावक एटले कर्म. राग कर्मना निमित्ते थनारो भाव छे माटे तेने भावकभाव कह्यो छे. ए कांई स्वभावभाव नथी. (जीवनी) पर्यायमां थाय छे तोपण ए स्वभावभाव नथी. रागादि जे निश्चयथी अजीव छे तेने पोताना मानीने अज्ञानी एमां ज लीन थई जाय छे अने अशांतभावने सेवे छे. शरीर, राग, पुण्य, पाप इत्यादि स्वांग छे ते अजीव छे. खरेखर ए भगवान आत्माना साचा पहेरवेश-भेख नथी. छतां अज्ञानी ए सर्व स्वांगने पोताना स्वरूपमय साचा जाणी तेमां तल्लीन थाय छे अने आकुळता वेदे छे.

धर्म ए बहु झीणी चीज छे, भाई! आत्मा ज्ञायकस्वरूप छे एवुं ज्यां भान थयुं त्यां जीवने पर्यायमां रागादिनो संयोग आवे, अजीवनो संयोग थाय, चक्रवर्ती आदि पदनो संयोग आवे तोपण ए सर्वने पोताना ज्ञानस्वभावमां अर्थात् शांतरसस्वरूप भगवान आत्मामां स्थित रहीने (भिन्न) जाणे छे. अहो! वस्तु आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञान अने अतीन्द्रिय आनंद इत्यादि गुणोनो पिंड छे. तेने जेणे निज स्वरूपपणे अनुभव्यो छे ते धर्मात्मा शांतरसमां निमग्न रहीने परने (परपणे) मात्र जाणे छे. अज्ञानी तेने (परने) पोताना मानीने आकुळतामय अशांतभावमां रहे छे.

तेमने (अज्ञानीओने) सम्यग्द्रष्टि यथार्थ स्वरूप बतावी, तेमनो भ्रम मटाडी