गाथा ३८ ] [ २३३ सम्यग्द्रष्टि बनावे छे. सम्यग्द्रष्टि अज्ञानीने अंतरनी वात समजावे छे के-भाई! आ रागादि अने शरीरादि छे ए तो बाह्य स्वांग छे, तारी चीज नथी. ए तारामां नथी अने तुं एमां नथी. राग, पुण्य अने शरीर ए जीवना अधिकारमां नथी. जीवना अधिकारमां तो ज्ञान, दर्शन, वीर्य, आनंद, शान्ति इत्यादि छे. भगवान! तुं तो ज्ञायकस्वभावी त्रिकाळ अखंड एकरूप वस्तु छे. तारी पर्यायमां पण ज्ञान अने आनंदनो रस आवे एवुं तारुं स्वरूप छे. तेथी रागादिनुं लक्ष छोडी अंतरमां एकाग्र था. तेथी शांतरस प्रगट थशे, अतीन्द्रिय आनंद प्राप्त थशे.
रागथी भिन्न आत्मा चिदानंदघन प्रभु अतीन्द्रिय आनंदनो नाथ छे एम समकिती मिथ्याद्रष्टि जीवने बतावे छे. त्यां एम जाणनार पोते आनंदना नाथमां समाई जाय छे. रागथी खसीने निराकुळ आनंद अने शान्तिने प्राप्त थई जाय छे. आ प्रमाणे वस्तुना यथार्थ स्वरूपने जाणी, भ्रम मटाडी, शांतरसमां लीन थई अज्ञानी सम्यग्दर्शनने प्राप्त थाय छे. तेनी सूचनारूपे रंगभूमिना अंतमां आचार्ये ‘मज्जन्तु’ इत्यादि आ श्लोक रच्यो छे. ते, हवे जीव-अजीवनो स्वांग वर्णवशे तेनी सूचनारूपे छे एवो आशय सूचित थाय छे. आ प्रमाणे अहीं सुधी रंगभूमिनुं वर्णन थयुं.
मरीने पण-महाकष्टे पण (उग्र पुरुषार्थ करीने) तमे तत्त्वने देखो. सर्वज्ञ परमेश्वर भगवान जिनेश्वरदेवे जेवो कह्यो छे तेवा निज ज्ञानानंदस्वरूपी आत्मामां ठरो. कहे छे के-भाई! तुं रागना रसने छोडी दे. रागने अने रागना रसने मारी नाख. तुं आ जीवता जीवने जीवतो जो. (रागथी जीवनी हिंसा थाय छे). चैतन्यजीवन वडे जीवता भगवान आत्माने जाणीने रागथी निवृत्त था. दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि भाव आकुळता अने दुःख छे. तेमां तने जे रस आवे छे ते छोडी दे. शान्तरसनो समुद्र भगवान आत्मा छे. तेमां निमग्न थई शांतरसने प्राप्त था. आत्माना आनंदना रसमां छकी जा, अत्यंत लीन थई जा. समकिती, संतो अने सर्वे भगवंतो आनंदरससमुद्र एक भगवान आत्माने बतावे छे. तेथी बीजुं बधुंय छोडी एक निजानंदरसमां अत्यंत लीन थाओ.
आ प्रमाणे जीव-अजीव अधिकारमां पूर्वरंग समाप्त थयो.