समयसार गाथा ३९ थी ४३ ] [ १३
एक समयनी पर्याय छे ते व्यक्त छे, प्रगट छे अने वस्तु (आत्मा) छे ते अव्यक्त छे. अव्यक्त एटले के पर्याय जे प्रगट-व्यक्त छे तेमां वस्तु आवती नथी माटे ते अव्यक्त छे. वस्तु छे ते पर्यायमां आवती नथी, पण एनुं ज्ञान पर्यायमां आवे छे. खरेखर तो ज्ञाननी पर्याय छे एमां ज्ञायक चैतन्य ज जणाई रह्यो छे. ज्ञाननो निश्चयथी स्वप्रकाशक स्वभाव होवाथी, ज्ञायक एमां जणाई ज रह्यो छे, परंतु अज्ञानीनी द्रष्टि ज्ञायक उपर नथी. पर्यायबुद्धि वडे पुण्य-पापनुं करवुं अने शाता-अशातापणे सुख-दुःखनुं भोगववुं ए ज जीव छे एम अज्ञानी माने छे.
जे शुद्धभावनो र्क्ता अने अतीन्द्रिय आनंदनो भोक्ता छे ते जीव छे ए वात अज्ञानीने बेसती नथी. एनो निर्णय करवानो पण एने कयां समय छे? परंतु भाई! आत्मा नथी, नथी एवो निर्णय तुं ज्ञानमां करे छे के पुण्य-पापना भावमां के सुख-दुःखनी कल्पनामां? सुख-दुःखनी कल्पना तो अचेतन छे. तथा शुभ-अशुभ भाव पण अचेतन जड छे. अचेतन एवां तेओ चैतन्यस्वरूप जीव नथी एवो निर्णय केम करे? जो ए निर्णय चेतन करे छे एम कहो तो एनाथी (कर्मथी) जुदो जीव छे एम साबित थई जाय छे. परंतु पर्याय जेनुं सर्वस्व छे एवा अज्ञानी जीवने कर्म जुदां पडे अने आत्मा एकलो रहे एवुं कांई देखातुं नथी. तेथी आत्मा अने कर्म बेउ भेगां थईने जीव छे एम ते माने छे.
आम तो नवमी ग्रैवेयक गयो त्यारे शास्त्रमांथी धारणारूपे आ वात तो जाणी हती के शुभाशुभ भाव अने सुख-दुःखनी कल्पनाथी आत्मा जुदो छे. पण ए वात धारणारूपे हती, वस्तुतत्त्वनी द्रष्टि करी नहोती. अगियार अंग भण्यो एमां आ वात तो आवी हती. त्यारे ए उपदेश पण एम ज आपतो हतो के शुभाशुभ भावथी भिन्न अखंड एक आत्मवस्तु छे. पण अरे! एणे शुभाशुभ भावथी भिन्न पडी आत्मा अनुभव्यो नहि. भगवान आत्मा आनंदस्वरूप छे एमां एनी द्रष्टि गई नहि.
अहीं (आ गाथामां) तो स्थूळपणे जे एम माने छे के कर्मथी जुदो जीव जोवामां आवतो नथी एनी वात लीधी छे. पण खरेखर अगियार अंगना पाठी अज्ञानीनी पण अंदर तो आ ज मान्यता छे. शुभाशुभ भावनुं करवापणुं वस्तुमां नथी, वस्तु तो ज्ञायक छे एम तेणे धारण तो करी हती. परंतु पर्यायबुद्धि टळी नहोती. कर्म अने आत्मा जुदा छे एम नवतत्त्वने तो ए जाणतो हतो. पण जुदा छे एने जुदा करी शकयो नहोतो. आ ज्ञानदर्शनरूप चैतन्यशक्ति एवुं जे स्वतत्त्व, ते पुण्य-पाप अने सुख-दुःखना वेदनथी भिन्न छे एम एणे धार्युं तो हतुं; पण भेदज्ञान प्रगट करी भिन्नता करी नहि, दिशाने फेरवी नहि. पर अने पर्याय उपर जे लक्ष हतुं ए त्यां ज अकबंध रह्युं. स्वद्रव्यनी सन्मुखता कर्या विना विमुखपणे मात्र बहारथी धारणा करी. पण तेथी शुं? आत्मा कांई परलक्षी शास्त्रज्ञानथी जणाय एवी चीज नथी.