Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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समयसार गाथा-४४ ] [ २३ रूप निर्विकल्प वीतराग परिणति ते आत्मानो सद्व्यवहार छे. जे विकल्प छे ए तो असद्भूत छे. ए आत्मानो व्यवहार कयां छे? रागादि विकल्प तो मनुष्यनो, चारगतिमां रखडवानो, व्यवहार छे. आत्मा परिपूर्ण आनंदस्वरूप चैतन्यघनस्वभावी भगवान छे. तेना आश्रये जे निर्मळ सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी वीतरागी पर्याय प्रगटे ते आत्मानो व्यवहार छे. आवो मार्ग जेने अंतरमां बेसे तेनी दशा कोई अलौकिक होय छे.

अहीं कहे छे के शुभभावथी आत्माने लाभ थाय, धर्म थाय एम शुभभावने जीव कहेनारा परमार्थवादी नथी, कारण के आगम, युक्ति अने स्वानुभवथी तेमनो पक्ष बाधित छे.

तेमां ‘तेओ जीव नथी’ एवुं आ सर्वज्ञनुं वचन छे ते तो आगम छे. जे आगममां परनी दयाथी धर्म मनावे अने परनी दयाने सिद्धांतनो सार कहे ए जैन आगम ज नथी. अहीं तो पूजा, भक्ति, व्रत, तप, दान दयाना जे विकल्प ते जीव नथी एवुं जे अर्हत्-प्रवचन छे-ते आगम छे एम कह्युं छे. पर जीवनी दया हुं पाळी शकुं एवी मान्यता छे ते मिथ्यादर्शन छे. अने परनी हुं रक्षा करुं एवो जे विकल्प छे ते शुभभाव छे, राग छे. ए मिथ्या मान्यता अने राग छे ते जीव नथी एवुं जे सर्वज्ञनुं वचन छे ते आगम छे.

कोई एम माने के-बीजा जीवनी रक्षा करवा माटे के बीजा जीवने न हणवा माटे भगवाननी दिव्यध्वनि छूटी छे तो ते बराबर नथी. भगवाने तो आत्मानी पूर्ण आनंदनी अने वीतरागी शान्तिनी दशा प्रगट करवा माटे वाणीमां कह्युं छे. भगवाननी दिव्यध्वनिमां तो एम आव्युं छे के पर जीवने तुं हणी शक्तो ज नथी के पर जीवनी तुं रक्षा पण करी शक्तो ज नथी. तथा पर जीवनी रक्षा करवाना जे भाव थाय छे ए राग छे. अने राग छे ते खरेखर तो पोताना आत्मानी हिंसा करनार परिणाम छे. पर जीवनी दया पाळवानो भाव राग छे, तेथी ते स्वरूपनी हिंसा करनारो छे. पुरुषार्थ सिद्धयुपायमां अमृतचंद्राचार्ये रागादिना प्रादुर्भावने हिंसा कही छे, अने रागादिना अप्रादुर्भावने अहिंसा कही छे. आवो धोधमार्ग छे अने ए धोधमार्गने कहेनारुं वीतराग सर्वज्ञदेवनुं वचन छे ते आगम छे. ते आगममां रागने जडस्वभाव अजीव कह्यो छे, ते जीवने लाभ केम करे? जीवने जीवनो स्वभाव लाभ करे, पण रागादि कदीय लाभ न करे.

हवे आ नीचे प्रमाणे स्वानुभवगर्भित युक्ति छेः-

स्वयमेव उत्पन्न थयेला एवा रागद्वेष वडे मलिन अध्यवसान छे ते जीव नथी, कारण के, कालिमा (काळप)थी जुदा सुवर्णनी जेम, एवा अध्यवसानथी जुदो अन्य चित्स्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ प्रत्यक्ष चैतन्यभावने जुदो अनुभवे छे.