२४ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-३
अज्ञानी एम कहे छे के काळपथी जुदो कोई कोलसो नथी तेम अध्यवसानथी जुदो आत्मा नथी. तेने युक्तिथी उत्तर आपे छे के काळपथी भिन्न जेम सुवर्ण छे तेम अध्यवसानथी भिन्न अन्य चित्स्वभावमय आत्मा छे. सोनामां जे काळप देखाय छे एनाथी सोनुं भिन्न छे. जे काळप छे ते सोनुं नथी पण मेल छे. तेम पर्यायमां जे पुण्य-पापना भाव छे ते आत्मा नथी. ए तो मेल छे. आ प्रमाणे काळपथी भिन्न सुवर्णनी जेम अध्यवसानथी भिन्न चित्स्वभावमय जीव छे एम युक्ति कही.
हवे अनुभवनी वात कहे छे के-भेदज्ञान करनाराओने रागथी-अध्यवसानथी जुदो जीव स्वयं उपलभ्यमान छे. अहाहा! अखंड एक ज्ञानानंदस्वभावी आत्माने भेदज्ञानीओ अध्यवसानथी भिन्न प्रत्यक्ष जुदो अनुभवे छे. अध्यवसानथी जुदो एटले एना आश्रय अने अवलंबन विना पोते पोताथी ज प्राप्त थाय छे, अनुभवमां आवे छे. अहो! शुं अद्भुत टीका छे! आने सिद्धांत अने आगम कहेवाय. एकलुं न्यायथी भरेलुं छे! कहे छे के रागनुं लक्ष छोडीने स्वभाव प्रति द्रष्टि करतां भेदज्ञानी समकितीओने रागथी भिन्न चित्स्वभावमय जीव अनुभवमां आवे छे.
जुओ अहीं आगम, युक्ति अने अनुभवथी एम सिद्ध कर्युं के आ अध्यवसानादि भावो जीव नथी परंतु एमनाथी भिन्न शुद्ध चैतन्यमय वस्तु जीव छे. आवी वात बीजे कय ांय छे नहि. वस्तुने सिद्ध करवा केटकेटलो न्याय आप्यो छे! इन्द्रियो अने रागना आश्रय विना भेदज्ञानीओने स्वयं शुद्ध जीववस्तु अनुभवमां आवे छे. पोते पोताथी ज अनुभवमां आवे छे. व्यवहार साधन अने निश्चय साध्य एम ज्यां कहेलुं छे त्यां ए निमित्त बताववा व्यवहारनयथी कथन करेलुं छे. भाई! वस्तु तो रागादिथी भिन्न त्रिकाळ शुद्ध चैतन्यस्वभावमय छे अने ते तेनी सन्मुख थतां अनुभवमां आवे छे.
स्वसन्मुखतानो अभ्यास न होवाथी आ वात कठण लागे छे. अनादिथी पर तरफ वलण जई रह्युं छे एने अंतर्मुख वाळवुं ए ज पुरुषार्थ छे. जे पर्याय रागादि उपर ढळेली छे एने तो कांई अंदर वाळी शकाय नहि. पण ज्यां द्रष्टि द्रव्य उपर जाय छे त्यां ते ज क्षणे पर्याय स्वयं अंतरमां ढळेली होय छे. त्यारे तेने अंतरमां वाळी एम कहेवाय छे.
अहीं टीकामां ‘स्वयमेव उत्पन्न थयेला एवा रागद्वेष’ एम कह्युं छे त्यां एम अभिप्राय छे के तेओ (रागद्वेष) आत्माथी उत्पन्न थया नथी. तथा ‘भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान’ छे एम कहीने एम बताववुं छे के आत्मानो अनुभव करवामां अन्य (राग, इन्द्रियो आदि) कोईनी अपेक्षा नथी. आत्मा पोते पोताथी ज अनुभवमां आवे छे.
भाई! आवा यथार्थ स्वरूपनो प्रथम निर्णय तो कर. अहाहा! वस्तु आवी सहज शुद्ध चित्स्वभावमय छे एवो विकल्प सहितना ज्ञानमां निर्णय तो कर. श्री समयसार