२८ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-३ चैतन्यस्वभावमय अमृतनो सागर हुं छुं एम अनुभववाने बदले आ मृतक शरीर हुं छुं, आ शरीर मारुं छे एम तुं कयां मूर्छाई गयो, प्रभु! अरे! अमृतनो सागर मृतक शरीरमां मूर्छायो ए मोटुं कलंक छे.
पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काळ अने अन्य जीव एम छ द्रव्यो छे ते मननो विषय छे. त्रणलोकना नाथ सर्वज्ञ परमात्मा पण मननो विषय छे. तेथी बीजी रीते कहीए तो सर्वज्ञ परमात्मा पण इन्द्रिय छे. अंदर खंडखंड ज्ञान जे थई रह्युं छे ते पण भावेन्द्रिय छे. भावेन्द्रिय खंडखंड ज्ञानने जणावे छे, ज्यारे आत्मा चैतन्यस्वरूप अखंड छे. तेथी खंडखंड ज्ञानने जणावती भावेन्द्रिय अखंड आत्माथी भिन्न पर वस्तु छे, ज्ञेय छे. एक रीते तो ते भावेन्द्रियने पुद्गलना परिणाम कह्या छे केमके क्षयोपशमभाव ए आत्मानो स्वभाव नथी. श्री समयसार गाथा ४९ नी टीकामां कह्युं छे के क्षयोपशमभाव ए जीवनो स्वभाव नथी. स्वभावद्रष्टिथी जोतां क्षयोपशमभावनो तेमां अभाव छे. अहो! वस्तुनुं स्वरूप अति सूक्ष्म अने गंभीर छे. लोकोने बहारनी (क्रियाकांडनी) प्रवृत्ति आडे अंतर (अंदरमां) वस्तु शुं छे ते शोधवानी दरकार नथी.
श्री समयसार गाथा प० थी पप मां आवशे के शब्दो, वाणी, शरीर, इन्द्रिय, मन ए बधां जे नोकर्म छे एनाथी अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा भिन्न छे. शरीरथी जुदो छुं एम धारणामां लीधुं होय, पण एवो भिन्न चैतन्यस्वभावमय आत्मानो प्रत्यक्ष अनुभव करवो जोईए. भेदज्ञानीओ देहथी भिन्न शुद्ध चिदानंदमय आत्माने प्रत्यक्ष अनुभवे छे.
पांचमो बोलः समस्त जगतने पुण्य-पापरूपे व्यापतो कर्मनो विपाक छे ते पण जीव नथी कारण के शुभाशुभ भावथी अन्य जुदो चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ पोते तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे.
जगतना सघळा संसारीओने पुण्य-पापरूपे कर्मनो विपाक व्यापेलो छे. तेओ पुण्य- पापने जीव कहे छे. अहीं कहे छे के पुण्य-पाप छे ए कर्मनो विपाक छे, ए आत्मा नथी. श्री समयसार कळशटीका कळश १८९ मां लीधुं छे के पठन-पाठन, सांभळवुं, चिन्तन करवुं, स्तुति, वंदना ए सघळो जे क्रिया-कलाप छे ते विकल्प छे, राग छे. हजु जेने पठन-पाठननी नवराश नथी एनी तो वात ज शुं करवी? एने तो आत्मा शुभाशुभ भावथी रहित शुद्ध चैतन्यधातु छे ए बेसी शक्तुं ज नथी. भाई! हिंसा, जूठ, चोरी, कुशील आदि पापना भाव तो झेर छे ज, पण आ पठन-पाठन, श्रवण, चिंतवन, स्तुति, वंदना आदि शुभभाव छे ते पण झेरनो घडो छे. ते कांई अमृतस्वरूप आत्मा नथी.
जेने आत्माना आनंदनो अनुभव होय तेना शुभभावने आरोपथी अमृत कहेवाय