Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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समयसार गाथा-४४ ] [ २९ छे. त्रिकाळ ध्रुव अखंड एक चैतन्यस्वरूपना अवलंबने जे निश्चयधर्म प्रगटयो छे ते ज खरेखर अमृत छे. पण ते धर्मनो शुभभाव पर आरोप करीने शुभभावने पण अमृत कह्यो छे; छे तो खरेखर ए झेर. अरे! जगतने सत्य सांभळवा मळे नहि ए बिचारा कयां जशे? लाखो रूपियानां दान आपे त्यां दान देवानो जे भाव छे ते पुण्य छे. एनाथी कांई जन्म-मरण न मटे. अने एने धर्म माने तो मिथ्यादर्शन छे. पैसा तो अजीव छे. जीव कांइ ए अजीवनो स्वामी नथी. पैसा मारा छे एम माननारे पोताने अजीव मान्यो छे. भाई! पैसा पेदा करवा, एने साचववा अने वापरवा ए कांई आत्मानी क्रिया नथी. तथा दान आपवानो जे शुभभाव छे ते राग छे, संसार छे. शुभभाव के जे संसारमां प्रवेश करावे तेने भलो केम कहीए?

पुण्य-पापना भाव ए तो कर्मनो विपाक छे, ए कांई भगवान आत्मानो विपाक नथी. पुण्य-पापनो जे र्क्ता थाय ए जीव नहि. जीव तो निर्मळ ज्ञानानंदस्वरूप छे. ए ज्ञाननो र्क्ता थाय. जीव विकारनो र्क्ता थाय एम माननारे पोताने आखोय विकारी मान्यो छे. पण भाई! वस्तु आत्मा तो विकारथी रहित चिन्मात्र छे. वस्तुतत्त्व बहु सूक्ष्म छे. बापु! जन्म-मरणना दुःखोथी मुक्त थवानो उपाय अति आकरो अने झीणो छे.

आ लसण अने डुंगळीमां जे निगोदना जीवो छे एमने पण शुभाशुभभावो तो होय छे. क्षणमां शुभ अने क्षणमां अशुभ भाव आवे छे. एमने पण शुभाशुभ कर्मधारा निरंतर चाल्या करे छे. भाई! ए तो बधो कर्मनो विपाक छे. ए जडनुं फळ छे, ए कांई चैतन्यनुं फळ नथी. चैतन्यस्वरूप आत्मा तो पुण्य-पापरूप कर्मना विपाकथी भिन्न छे एम सर्वज्ञदेवे कह्युं छे. युक्तिथी पण एम ज सिद्ध थाय छे अने भेदज्ञानीओ वडे पण शुभाशुभ भावोथी भिन्न जुदो चैतन्यस्वभावमय आत्मा प्रत्यक्ष अनुभवाय छे.

छठ्ठो बोलः शाता-अशातारूपे व्याप्त जे समस्त तीव्रमंदपणारूप गुणो ते वडे भेदरूप थतो जे कर्मनो अनुभव ते पण जीव नथी. शातानुं वेदन एटले कल्पनामां जे अनुकूळपणे सुखरूप लागे अने अशातानुं वेदन एटले कल्पनामां जे प्रतिकूळपणे दुःखरूप लागे एवा भेदरूप जे कर्मनो अनुभव ते जीव नथी. शरीर तो रोगनी मूर्ति छे. एक तसुमां (तसु जेटला शरीरना भागमां) ९६ रोग शरीरमां छे. एवा आखाय शरीरमां रोग भरेला छे. ए रोग ज्यारे प्रगट थाय त्यारे जे अशातानुं वेदन थाय ए पुद्गलनुं फळ छे. तथा शरीर निरोगी रहे अने बहार सामग्री-धन, संपत्ति, कुंटुंब-परिवार आदि ठीक अनुकूळ होय त्यारे जे शातानुं- सुखनी कल्पनानुं वेदन थाय ए पण पुद्गलनुं फळ छे. ए कल्पनामय सुख-दुःखना वेदनमां कर्मनो अनुभव छे, आत्मानो नहि. शरीर हृष्ट-पुष्ट निरोगी होय अने करोडोनी साह्यबी होय त्यारे जे सुखनो अनुभव थाय ते