कथं चिदन्वयप्रतिभासेऽप्यध्यवसानादयः पुद्गलस्वभावा इति चेत्–
जस्स फलं तं वुच्चदि दुक्खं ति विपच्चमाणस्स।। ४५ ।।
यस्य फलं तदुच्यते दुःखमिति विपच्यमानस्य।। ४५ ।।
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हवे शिष्य पूछे छे के आ अध्यवसानादि भावो जीव न कह्या, अन्य चैतन्यस्वभाव जीव कह्यो; तो आ भावो पण चैतन्य साथे संबंध राखनारा प्रतिभासे छे, (चैतन्य सिवाय जडने तो देखाता नथी, ) छतां तेमने पुद्गलना स्वभाव केम कह्या? तेना उत्तरनुं गाथासूत्र कहे छेः-
परिपाक समये जेहनुं फळ दुःख नाम प्रसिद्ध छे. ४प.
गाथार्थः– [अष्टविधम् अपि च] आठे प्रकारनुं [कर्म] कर्म छे ते [सर्व] सर्व [पुद्गलमयं] पुद्गलमय छे एम [जिनः] जिनभगवान सर्वज्ञदेवो [ब्रुवन्ति] कहे छे- [यस्य विपच्यमानस्य] जे पकव थई उद्रयमां आवता कर्मनुं [फलं] फळ [तत्] प्रसिद्ध [दुःखम्] दुःख छे [इति उच्यते] एम कह्युं छे.
टीकाः– अध्यवसान आदि समस्त भावोने उत्पन्न करनारुं जे आठे प्रकारनुं ज्ञानावरण आदि कर्म छे ते बधुंय पुद्गलमय छे एवुं सर्वज्ञनुं वचन छे. विपाकनी हदे पहोंचेला ते कर्मना फळपणे जे कहेवामां आवे छे ते (एटले के कर्मफळ), अनाकुळतालक्षण जे सुख नामनो आत्मस्वभाव तेनाथी विलक्षण होवाथी, दुःख छे. ते दुःखमां ज आकुळतालक्षण अध्यवसान आदि भावो समावेश पामे छे; तेथी, जोके तेओ चैतन्य साथे संबंध होवानो भ्रम उपजावे छे तोपण, तेओ आत्माना स्वभावो नथी पण पुद्गलस्वभावो छे.
भावार्थः– कर्मनो उद्रय आवे त्यारे आ आत्मा दुःखरूप परिणमे छे अने दुःखरूप भाव छे ते अध्यवसान छे तेथी दुःखरूप भावमां (-अध्यवसानमां) चेतनतानो भ्रम ऊपजे छे. परमार्थे दुःखरूप भाव चेतन नथी, कर्मजन्य छे तेथी जड ज छे.