समयसार गाथा-४प ] [ ४३ कर्यो छे. तेथी अमे एम जाणीए छीए के तेनो निषेध करीने भगवाने सघळाय पराश्रित भावोनो निषेध कर्यो छे. आ प्रमाणे श्री अमृतचंद्राचार्ये कह्युं छे.
आवी वात काने पडी न होय तेथी केटलाक लोको कहे छे के-तमे कांई (व्रत, तप, आदि) करवानुं तो कहेता नथी? पण भाई, निज शुद्धात्मानुं ज्ञान करवुं, तेनुं श्रद्धान करवुं, अने तेमां रमणता करवी ए शुं करवानुं नथी? ज्यां जेवडी चीज पडी छे तेनुं ज्ञान करवुं, ज्यां जेवडी चीज छे तेनी प्रतीति करवी अने ज्यां चीज छे तेमां ज रमवुं ए ज करवानुं छे. आ सिवाय व्रत, तप, आदि व्यवहारना विकल्पे तो जगतने मारी नाख्युं छे.
प्रश्नः– शुभभाव ए प्रशस्त विकल्प छे ने?
उत्तरः– भाई, ए प्रशस्त विकल्प पण नुकशान करनारो भाव छे, आत्माने घायल करनारो भाव छे एम पुण्य-पाप अधिकारमां कह्युं छे. श्री समयसार कळशटीका कळश १०८मां कह्युं छे के-‘अहीं कोई जाणशे के शुभ-अशुभ क्रियारूप जे आचरणरूप चारित्र छे ते करवायोग्य नथी तेम वर्जवायोग्य पण नथी. उत्तर आम छे के-वर्जवायोग्य छे, कारण के व्यवहारचारित्र होतुं थकुं दुष्ट छे, अनिष्ट छे, घातक छे; तेथी विषय-कषायनी माफक क्रियारूप चारित्र निषिद्ध छे.’ रुचिमां लोकोने आत्मा बेसतो नथी पण राग बेसे छे. परंतु भाई, ए रागना परिणाम तो दुःखमां समावेश पामे छे. ए रागादि भावो आत्माना चैतन्यस्वभावमां प्रतिष्ठा पामता नथी तेथी ते पुद्गलस्वभावो ज छे.
कर्मनो उदय आवे त्यारे आ आत्मा दुःखरूप परिणमे छे अने दुःखरूप भाव छे ते अध्यवसान छे. जुओ, कर्मना उदयना निमित्ते परिणमे त्यारे आत्मा रागरूपे, पुण्य-पापना भावरूपे परिणमे छे. ए शुभाशुभ रागना परिणाम छे ते दुःखरूप छे. दुःखरूप भाव छे ते अध्यवसान छे अने ते दुःखरूप भावमां अज्ञानीने चेतनानो भ्रम उपजे छे; खरेखर चेतनाना परिणाम छे नहि.
भगवान आत्मा तो ज्ञानानंदस्वरूप छे. दुःखरूप भावमां आत्मा छे ए तो भ्रम छे, परमार्थे दुःखरूप भाव चेतन नथी. परमार्थे एटले? परा कहेतां उत्कृष्ट, मा एटले लक्ष्मी. उत्कृष्ट लक्ष्मी एटले अतीन्द्रिय आनंद अने ज्ञाननी दशा जे प्रगटे ते परमार्थ छे. लोको, परनो कांई उपकार करे तेने परमार्थ कहे छे पण ए परमार्थ नथी. परनो उपकार करवानो जे शुभभाव छे ए तो दुःखरूप भाव छे. ए भावमां तो चैतन्य छे ज नहि. ‘अलमलमतिजल्पै...’ एक कळश २४४मां आवे छे के आ परमार्थने एकने ज निरंतर अनुभवो एटले उत्कृष्ट ज्ञान अने आनंदस्वरूप वस्तु जे आत्मा छे ते एकने