प० ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-३
ज्ञान ते आत्मा एम कहेवुं ते अनुपचरित सद्भूत व्यवहार छे. ‘ज्ञान ते आत्मा’ एम कहेतां त्रिकाळी ज्ञायकमां भेद पडयो तेथी व्यवहार, ज्ञान आत्मानुं छे अने ते आत्माने जणावे छे माटे अनुपचरित सद्भूतव्यवहार छे.
ज्ञान रागने जाणे छे एम कहेवुं ते उपचरित सद्भूत व्यवहार छे. ‘ज्ञान रागने जाणे छे’ एमां जाणनारुं ज्ञान पोतानी पर्याय छे माटे सद्भूत, त्रिकाळीमां भेद पाडयो माटे व्यवहार अने राग जे पर छे, पोताना स्वरूपमां नथी तेने जाणे छे ते उपचार छे. आ प्रमाणे ज्ञान रागने जाणे छे एम कहेवुं उपचरित सदभूत व्यवहार छे.
आत्मानी पर्यायमां जे राग छे ते शुद्ध सत्रूप आत्मवस्तुमां नथी तेथी असद्भूत छे. भेद पाडयो ते व्यवहार छे अने ज्ञानमां स्थूळपणे जणाय छे तेथी उपचरित छे. आ रीते स्थूळ रागने आत्मानो कहेवो ते उपचरित असद्भूत व्यवहार छे. तथा जे सूक्ष्म अबुद्धिपूर्वकनो रागांश जे वर्तमान ज्ञानमां जणातो नथी, ख्यालमां आवतो नथी ते अनुपचरित असद्भूतव्यवहार छे. ते (व्यवहार) बधोय अभूतार्थ होवाथी अभूत अर्थने प्रगट करे छे. शुद्धनय भूतार्थ होवाथी भूत अर्थने एटले छता त्रिकाळी पदार्थने प्रगट करे छे. व्यवहार अभूतार्थ छे तेथी व्यवहार छे ज नहि एम नहि, पण व्यवहार आश्रय करवा योग्य नथी तेथी हेय छे.
एक समयनी पर्याय छे ते व्यवहार छे. पंचाध्यायीमां द्रव्यने निश्चय अने पर्यायने व्यवहार कह्यां छे. केवळज्ञाननी पर्याय ए पण सद्भूत व्यवहार छे. परमात्मप्रकाशमां आवे छे के मति, श्रुत, अवधि अने मनःपर्ययज्ञान पण विभावगुण छे. श्री नियमसारमां पण कह्युं छे के जे चार ज्ञान छे ते विभावस्वभाव छे अने केवळज्ञान शुद्धस्वभावभाव छे. केवळज्ञान प्रगटे छे ते कायम रहे छे माटे तेने स्वभावभाव कह्यो अने चार ज्ञान कायम रहेतां नथी माटे तेमने विभावगुण कह्या. परंतु ते केवळज्ञान पण भेदरूप (अंशरूप) होवाथी तेने अहीं व्यवहार कह्यो छे. समयसारनी शैली एवी छे के ते परमार्थने जणावे छे अने अपरमार्थनुं पण साथे ज्ञान करावे छे. श्री समयसारनी १४मी गाथाना भावार्थमां कह्युं छे के मुख्य-गौण कथन सांभळी सर्वथा एकांत-पक्ष न करवो. सर्व नयोना कथंचित् रीते सत्यार्थपणानुं श्रद्धान करवाथी ज सम्यग्द्रष्टि थई शकाय छे. अर्थात् व्यवहारनयनुं पण यथार्थ ज्ञान करवुं जोईए. पर्याय छे ज नहि एम कोई कहे तो एनुं ज्ञान खोटुं छे. पर्याय छे एम ज्ञान राखीने द्रव्यनो आश्रय करे ए ज यथार्थ छे.
पर्याय छे, पर्यायमां राग छे एने जाणे नहि, माने नहि तो एकांतपक्ष थई जशे. एकलो निश्चय लेशो तो काम नहि चाले. निश्चयने व्यवहारनी अपेक्षा छे. फूलचंदजी सिद्धांतशास्त्रीए कह्युं छे ने के व्यवहारनी उपेक्षा करवी ए ज एनी अपेक्षा छे. पर्यायमां जे राग छे तेनी उपेक्षा करीने द्रव्यनी अपेक्षा करवी. व्यवहारनी उपेक्षा करी त्यां ज