समयसार गाथा-४६ ] [ प३ दर्शाववो न्यायसंगत छे. पण एनो अर्थ एम नथी के मंदरागरूप व्यवहार ते मोक्षनुं के मोक्षमार्गनुं कारण छे.
परमार्थनय तो जीवने शरीर तथा राग-द्वेष-मोहथी भिन्न कहे छे. जो तेनो एकांत करवामां आवे तो शरीर तथा राग-द्वेष-मोह पुद्गलमय ठरे अने तो पछी पुद्गलने घातवाथी हिंसा थती नथी अने राग-द्वेष-मोहथी बंध थतो नथी एम ठरशे. आम परमार्थे जे संसार- मोक्ष बन्नेनो अभाव कह्यो छे ते ज एकांते ठरशे. पण आवुं एकांतरूप वस्तुनुं स्वरूप नथी. परमार्थथी जे संसार-मोक्षनो अभाव कह्यो ते एकांते नथी. बंध-मोक्ष पर्यायमां तो छे ज. बंध, मोक्ष अने मोक्षनो उपाय ए बधी पर्यायोनो व्यवहार अवश्य छे.
एकांतरूप वस्तुनुं स्वरूप नथी. अवस्तुनुं श्रद्धान, ज्ञान, आचरण अवस्तुरूप ज छे. माटे व्यवहारनयनो उपदेश न्यायप्राप्त छे. अर्थात् व्यवहारनयनो विषय पण छे. आ रीते स्याद्वादथी बन्ने नयोनो विरोध मटाडी श्रद्धान करवुं ते सम्यक्त्व छे. ए नयोनो विरोध केवी रीते मटाडवो? स्याद्वादथी. पर्यायथी जुओ तो राग-द्वेष-मोह आदि साथे संबंध छे. वस्तुना स्वभावनी द्रष्टिथी जुओ तो संबंध नथी. पर्याय छे, पर्यायमां राग-द्वेष छे एनुं ज्ञान करवुं पण जिनवचनमां जे एकने ज उपादेय कह्यो छे ए शुद्ध त्रिकाळी आनंदनो नाथ भगवान आत्मानो आश्रय करवो. एम बन्ने नयोनो विरोध मटाडी श्रद्धान करतां सम्यक्त्व थाय छे.
जिनवचनमां त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप जीववस्तु उपादेय कही छे. छतां पर्याय, राग-द्वेष, बंध-मोक्ष इत्यादि बधो पर्यायनयनो, व्यवहारनयनो विषय छे खरो, पण ते आश्रय करवा लायक नथी. तथापि ‘ए नथी’ एम पण समजवा लायक नथी.