अथ केन द्रष्टान्तेन प्रवृत्तो व्यवहार इति चेत्–
ववहारेण दु उच्चदि तत्थेक्को णिग्गदो राया।। ४७ ।।
जीवो त्ति कदो सुत्ते तत्थेक्को णिच्छिदो जीवो।। ४८ ।।
व्यवहारेण तूच्यते तत्रैको निर्गतो राजा।। ४७ ।।
एवमेव च व्यवहारोऽध्यवसानाद्यन्यभावानाम्।
जीव इति कृतः सूत्रे तत्रैको निश्चितो जीवः।। ४८ ।।
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हवे शिष्य पूछे छे के आ व्यवहारनय कयां द्रष्टांतथी प्रवर्त्यो छे? तेनो उत्तर कहे छेः-
व्यवहारथी कहेवाय ए, पण भूप एमां एक छे; ४७.
–सूत्रे कर्यो व्यवहार, पण त्यां जीव निश्चय एक छे. ४८.
गाथार्थः– जेम कोई राजा सेना सहित नीकळ्यो त्यां [राजा खलु निर्गतः] ‘आ राजा नीकळ्यो’ [इति एषः] एम आ जे [बलसमुदयस्य] सेनाना समुदायने [आदेशः] कहेवामां आवे छे ते [व्यवहारेण तु उच्यते] व्यवहारथी कहेवामां आवे छे, [तक्र] ते सेनामां (वास्तविकपणे) [एकः निर्गतः राजा] राजा तो एक ज नीकळ्यो छे; [एवम् एव च] तेवी ज रीते [अध्यवसानाद्यन्यभावानाम्] अध्यवसान आदि अन्यभावोने [जीवः इति] ‘(आ) जीव छे’ एम [सूत्रे] परमागममां कह्युं छे ते [व्यवहारः कृतः] व्यवहार कर्यो छे, [तक्र निश्चितः] निश्चयथी विचारवामां आवे तो तेमनामां [जीवः एकः] जीव तो एक ज छे.
टीकाः– जेम आ राजा पांच योजनना फेलावथी नीकळी रह्यो छे एम कहेवुं ते,