Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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समयसार गाथा ४७-४८ ] [ प७

परमार्थे जीव एक ज छे. अध्यवसानादि भावो जीव नथी. अशुद्धताने करे एवी जीवमां कोई शक्ति के गुण नथी. पर्यायमां जे अशुद्धताना विकारी भावो थाय छे ते जीवमां छे एम व्यवहारथी कहेवाय छे, खरेखर ए मूळ वस्तुमां नथी. व्यवहार रत्नत्रयनो राग, देव-गुरु- शास्त्रनी मान्यतानो विकल्प, नवतत्त्वना भेदरूप श्रद्धाननो राग, शास्त्र भणवानी रुचिनो विकल्प, पांच महाव्रत पाळवानो विकल्प, छ कायना जीवोनी रक्षानो विकल्प-ए बधामां आत्मा व्यापतो नथी छतां ए बधामां आत्मा छे एम कहेवुं ए व्यवहारनय छे.

आत्मा तो तेने कहीए जे एक शुद्ध चिद्घन छे. जेम राजा एक छे तेम आत्मा एक ज छे. पांच योजनमां फेलाएलो राजा छे एम कहेवुं ए तो सेनामां राजा कहेवानो व्यवहार छे. तेम रागग्राममां आत्मा व्याप्यो छे एम कहेवुं ए तो पर्यायमां आत्मा कहेवानो व्यवहार छे. खरेखर पर्यायमां आत्मा व्यापतो नथी. आम कही शुं कहेवा मागे छे? के अनादिनी जे पर्याय प्रपंच उपर द्रष्टि छे, अशुद्ध उपादाननी द्रष्टि छे तेनुं लक्ष छोडी भगवान आत्मा जे एकरूप छे तेना उपर द्रष्टि कर. तेथी पर्यायमां निर्मळता थशे. अहाहा? शुं दिगंबर संतोनी वाणी!

जे पुण्य-पापरूप विकार छे ते भूतावळ छे. भगवान आत्मा भूतार्थ छे. भूतावळमां भगवान चैतन्यमूर्ति आवे एम कदीय बनतुं नथी. छतां ए पुण्य-पापना भावोनी भूतावळमां आत्मा छे एम कहेवुं ए व्यवहारनय छे.

[प्रवचन नं. ९४ * दिनांक १३-६-७६]