६२ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-३
अतोऽतिरिक्ताः सर्वेऽपि भावाः पौद्गलिका अमी।। ३६ ।।
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सर्वस्व-सार छे एवो [अयम् जीवः] आ जीव [इयान्] एटलो ज मात्र छे; [अतः अतिरिक्ताः] आ चित्शक्तिथी शून्य [अमी भावाः] जे आ भावो छे [सर्वे अपि] ते बधाय [पौद्गलिकाः] पुद्गलजन्य छे-पुद्गलना ज छे. ३६.
प्रभु! आप ज्यारे एम कहो छो के पुण्य-पापना भाव ए आत्मा नथी तो आत्मा छे केवो? पाछली गाथामां एम कह्युं के अनेक प्रकारना रागमां जीव व्यापतो नथी, जीव तो एकस्वरूप ज छे. तो ते जीवनुं स्वरूप शुं छे? पुण्य-पापना भाव, सुख-दुःखनी कल्पनाना भाव, कर्म ने आत्मा बन्ने एक होवानो भाव इत्यादि अध्यवसानादि भावो जीव नथी. तो एक, टंकोत्कीर्ण, परमार्थस्वरूप जीव केवो छे? आवो शिष्यनो प्रश्न छे तेना उत्तररूपे गाथा कहे छे.
आ गाथा श्री समयसार, श्री प्रवचनसार, श्री नियमसार, श्री पंचास्तिकाय, श्री अष्टपाहुड तथा श्री धवल एम अनेक शास्त्रोमां छे. गाथामां ‘जाण’ शब्द पडयो छे. ए शब्द द्वारा श्री कुंदकुंदाचार्यदेव शिष्यने एम कहे छे के हे भाई! तुं आत्माने आवो जाण.
जे जीव छे ते खरेखर पुद्गलद्रव्यथी अन्य होवाथी तेमां रसगुण विद्यमान नथी माटे अरस छे. खरेखर अर्थात् यथार्थपणे आत्मा पुद्गलद्रव्यथी अन्य एटले जुदो छे. परमार्थे आत्माने पुद्गल द्रव्य साथे कांई संबंध नथी. शरीर अने कर्म साथे आत्माने जे निमित्त- नैमित्तिक संबंध छे ते व्यवहार छे. ते ज्ञान करवा माटे छे पण आश्रय करवा माटे नथी. आश्रय करवा माटे तो एक त्रिकाळी (ध्रुव) आत्मा ज छे.
अहीं कहे छे के जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्यथी अन्य होवाथी तेमां रसगुण विद्यमान नथी. अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मामां अतीन्द्रिय (आनंदनो, चैतन्यनो) रस छे पण पुद्गलनो जड रस आत्मामां नथी माटे आत्मा अरस छे.
विश्वमां छ द्रव्यो छे. तेमां जीवद्रव्य पांच द्रव्योथी भिन्न छे. पण अहीं जीवद्रव्य पुद्गलथी भिन्न बताववुं छे केमके मुख्यपणे जीव पुद्गलमां ज एकत्व करीने