Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 59 of 4199

 

प२ [ समयसार प्रवचन

स्वसमय अने परसमयनुं फरीथी थोडुं वधारे स्पष्टीकरण करवामां आवे छे. आ गाथामां जीव नामनो पदार्थ समय छे ए वात सात बोलथी प्रथम सिद्ध करी छे. हवे तेमां स्वसमय अने परसमयना परिणमननी वात करे छे. त्रणकाळ अने त्रणलोकना द्रव्यगुण-पर्यायनी स्थितिने -स्वरूपने केवळज्ञान एक समयमां प्रकाशवाने समर्थ छे. सर्व पदार्थोना गुणो, पर्यायो-द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव बधुं एक समयमां केवळज्ञान प्रकाशे छे. आवुं केवळज्ञान प्रगट करवानी अपेक्षाए साध्य छे. तेने उत्पन्न करनारी भेदज्ञानज्योति छे. आ भेदज्ञानज्योतिनो उदय रागथी भिन्न पडी स्वभावनी द्रष्टि करतां थाय छे. आवा भेदज्ञानना बळ वडे ज्यारे आ जीव दर्शनज्ञानस्वभावमां नियतवृत्तिरूप-निश्चयरमणतारूप-टकवारूप वर्ते छे, अथवा त्रिकाळ ध्रुव जे आत्मतत्त्व तेनी साथे एकत्वगतपणे वर्ते छे-निश्चय रत्नत्रयरूप परिणतिथी वर्ते छे त्यारे ते दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थित होवाथी स्वसमय एम जाणवामां आवे छे.

पहेलां जे समय कह्यो ते द्रव्य-गुण-पर्याय सहित आत्मा समजवो. अनादि द्रव्य-गुण-पर्यायवाळुं जीवनुं जे स्वरूप छे तेनुं सात बोलथी वर्णन कर्युं. एमांथी ध्येयरूप आत्मानी वात अहीं कहे छे. दर्शनज्ञान स्वभावे होवारूप जे आत्मतत्त्व तेनी साथे एकत्वगतपणे वर्ते छे ते स्वसमय छे. ध्रुवस्वरूप भगवान आत्मा तेनी रुचि ते सम्यक्दर्शन, तेनुं ज्ञान ते ज्ञान, तेमां स्थिरता ते चारित्र. आवा रत्नत्रयपणे परिणमवुं तेने एकत्वगत थयो एम कहेवामां आवे छे. अहाहा! राग विनानो एकलो थई गयो. दया, दानना, रागविकल्पनी एकतापणे परिणमे अने जाणे ते परसमय छे. आत्मतत्त्व साथे एकत्वगतपणे वर्ते छे एटले एकपणानी श्रद्धा, एकपणानुं ज्ञान अने एकपणामां रमणतारूपे वर्ते छे, त्यारे दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थित होवाथी स्वसमय छे. पर्याय स्थित थइ छे द्रव्यमां, पण द्रव्य पोते पर्यायमां स्थित छे एम कह्युं छे. अहीं तो परिणमनने सिद्ध करवुं छे ने? स्वसमयना परिणमननुं ध्येय तो त्रिकाळी द्रव्य छे, पण अहीं परिणमन बतावीने तेने आत्मा कहेवामां आव्यो छे. रागरूपे परिणमे ते अनात्मा छे एम सिद्ध करवुं छे.

लोको बहारमां रोकाई गया छे. एकेन्द्रियनी दया पाळवी, छ कायना जीवोनी रक्षा करवी, वगेरे. अरे! आ तो तारी पोतानी दया पाळवानी वात चाले छे, बापु! तुं ज्ञानदर्शनस्वभावनो पिंड परमात्मा छो. एवुं तारुं चैतन्य जीवन छे. निश्चयथी त्रिकाळ, एकरूप, शुद्ध, बुद्ध स्वभाव जे छे एवा प्राणथी जीवे ते जीव छे. प्रथम ‘जीवो’ शब्द छे ने? ए जीवनी व्याख्या चाले छे. एवा शुद्ध जीवने अहीं ध्येय बनावीने परिणमन