भाग-१ ] प३
करवानी वात छे. आ त्रिकाळी निश्चयप्राणनी वात करी. अशुद्धनिश्चयथी अशुद्धभाव क्षायोपशमिक भावप्राणथी जीवे तेने जीव कहेवामां आवे छे. अशुद्धप्राणथी जीवे छे ते अज्ञानी छे. वळी जड शरीर, ईंद्रिय, मन-वचन-काया आदिथी जीवे ए जीव छे एम कहेवुं ते असद्भूतव्यवहार नयनुं कथन छे, केमके पोते जडस्वभाव नथी छतां जडथी जीवे एम कहेवुं ए असद्भूत व्यवहार छे, ते असत्यार्थ छे.
अमृतचंद्राचार्ये परिशिष्टमां प्रथम ‘जीवत्वशक्ति’ कही छे. आ जीवत्वशक्ति दर्शनज्ञानस्वभावरूप शुद्धचैतन्यभावप्राणरूप छे. ते जीवनुं वास्तविक जीवतर छे. शुद्धदर्शनज्ञानस्वभावरूप जे जीवतत्त्व तेनी रुचि, ज्ञान अने रमणता थयां ते स्वसमय छे. अनादिनो पर घरमां भमतो हतो ते सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप स्वघरमां आव्यो ते स्वसमय छे. एनाथी ऊलटुं राग-द्वेष, दया, दान, पुण्य-पाप आदि परघरमां भमे ते परसमय छे.
आ बधुं समजवुं पडशे, भाई! आबरूमां, पैसामां-धूळमां कांई नथी.
हवे परसमय कोने कहेवाय ते स्पष्ट करे छे. आत्माने अनादि अविद्या कहेतां अज्ञानथी मोह पुष्ट छे. मोहकर्म तेमां निमित्त छे. मोहकर्म जेनुं निमित्त छे एवा मोहना उदय अनुसार अनादिथी प्रवृत्ति करे छे- रागद्वेष, पुण्य-पाप दया, दान, आदि विकाररूप परिणमे छे. आ विकारी परिणमनने आधीन थयेलो ते दर्शन- ज्ञानस्वभावरूप आत्मतत्त्वथी छूटी गयो छे. स्वसमय परिणमनमां दर्शनज्ञानस्वभावमां निश्चित प्रवृत्तिरूप जे एकता होय छे ते अहीं विकारी परिणमनने आधीन थयेलो जीव दर्शन-ज्ञानस्वभावथी -निज शुद्धात्मतत्त्वथी छूटी जाय छे एम कह्युं छे. तेथी परद्रव्यना निमित्तथी उत्पन्न एवा मोह-राग-द्वेषादि भावो साथे एकीसाथे एकपणाने पामतो अने जाणतो ते पुद्गलकर्मना प्रदेशोमां स्थित थवाथी परसमय छे एम जाणवामां आवे छे. पुण्य-पापना विकारीभावो साथे एकपणुं मानीने वर्ते छे ते मिथ्याद्रष्टि परसमय छे.
आम जीव नामना पदार्थने द्विविधपणुं प्रगट थाय छे जे शोभास्पद नथी. एकपणुं ज शोभास्पद छे एम आगळ सिद्ध करशे. द्विविधपणामां विसंवाद ऊभो थाय छे माटे ते सुंदर नथी एम आगळ गाथा ३ मां कहेशे.
जीव नामनी वस्तुने पदार्थ कहेल छे. ‘जीव’ एवो अक्षरोनो समूह ते ‘पद’ छे. अने ते पदथी जे द्रव्यपर्यायरूप अनेकांतस्वरूपपणुं निश्चित करवामां आवे ते पदार्थ छे.