Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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७२ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-३ स्वभावपरिणतिथी ज प्राप्त थाय तेवो छे, राग परिणतिथी नहि. राग तो परद्रव्यनी परिणति छे. ते द्रव्यांतर छे एम आ शास्त्रना पुण्य-पाप अधिकारमां कह्युं छे. राग ए अनेरा द्रव्यनो भाव छे, स्वद्रव्यनो भाव नथी.

हुं शुद्ध छुं, एक छुं, अखंड छुं, अभेद छुं एवा जे विकल्पो छे ते कषायमां समाय छे, आकुळतामां एनो समावेश थाय छे. ए आकुळतामय भावकभाव बाह्य छे, व्यक्त छे, परज्ञेय छे अने अखंड शुद्ध जीववस्तु अंतरंग, अव्यक्त, ज्ञायकपणे छे तेनाथी भिन्न छे. भाई! आत्मानुं जेणे हित करवुं छे तेने वस्तुनुं प्रयोजनभूत ज्ञान तो होवुं जोईए; व्याकरण आदिनुं ज्ञान भले न होय. श्री मोक्षमार्ग प्रकाशकमां सातमा अधिकारमां श्री टोडरमलजी साहेबे लीधुं छे के-‘पोतानी बुद्धि घणी होय तो तेनो (व्याकरणादिनो) थोडोघणो अभ्यास करी पछी आत्महितसाधक शास्त्रोनो अभ्यास करवो अने जो थोडी बुद्धि होय तो आत्महितसाधक सुगम शास्त्रोनो ज अभ्यास करवो? मूळमां आत्मवस्तु शुं छे तेने यथार्थ समजी तेना तरफ ढळवुं, वळवुं ए मुख्य प्रयोजन छे. आवी अध्यात्मनी वात मूळ द्रव्यानुयोगमां छे ते बराबर जाणवी जोईए.

भाई! आ तो सम्यग्दर्शननो विषय शुं छे अने ते केम प्राप्त थाय एनी वात चाले छे. व्यक्त एवा कषायोना समूहथी जे अन्य छे एवो अव्यक्त ज्ञायकमूर्ति भगवान सम्यग्दर्शननो विषय छे. श्री समयसार गाथा १४२ मां लीधुं छे के-व्यवहारना विकल्पोनो तो अमे प्रथमथी ज निषेध करता आव्या छीए पण हवे ‘हुं शुद्ध छुं, ज्ञायक छुं,’ इत्यादि जे निश्चयनो विकल्प छे तेनो पण निषेध करवामां आवे छे. ए विकल्पने पण ज्यां सुधी अतिक्रमतो नथी त्यां सुधी अज्ञानरूप र्क्ता-कर्मपणुं टळतुं नथी. हुं र्क्ता अने विकल्प मारुं कार्य-एम माने छे त्यां सुधी अज्ञानदशा छे. खरेखर तो राग पोते ज र्क्ता अने राग पोते ज कर्म छे; आत्मा तेनो र्क्ता नथी. पण पोतानुं आवुं शुद्ध स्वरूप जीवे कदी सांभळ्‌युं नथी.

जे लोको व्यवहारथी परंपराए निश्चय प्राप्त थाय अर्थात् व्यवहार करतां करतां निश्चय प्राप्त थाय एम माने छे तेनो अहीं निषेध करे छे.

पुण्य-पाप अधिकारनी छेल्ली गाथानी श्री जयसेन आचार्यदेवनी टीकामां एक प्रश्न मूकयो छे. शिष्य पूछे छे के-प्रभु! आ पापनो अधिकार चाले छे. तेमां आप व्यवहार रत्नत्रयनी वात केम करो छो? व्यवहाररत्नत्रय तो पुण्य छे. तेनो उत्तर आप्यो छे के-एक तो व्यवहाररत्नत्रयमां आवतां जीव पराधीन थाय छे अने बीजुं स्वरूपमांथी पतित थाय त्यारे ज व्यवहाररत्नत्रयमां आवे छे. तेथी निश्चयनयनी अपेक्षाए ते पाप ज छे. अहीं एम कहे छे के कषायनो नानामां नानो कण पण-हुं आत्मा छुं अर्थात् हुं छ