समयसार गाथा प० थी पप ] [ १०१ तो आगळना गुणस्थाने जाय त्यारे (क्रमशः) उत्पन्न न थाय. परंतु नीचेना गुणस्थाने (यथासंभव) उत्पन्न तो थाय छे, परंतु अनुभूतिमां आवता नथी. आत्मानुभव थतां मिथ्यात्वना परिणाम तो उत्पन्न ज थता नथी. परंतु बीजा आस्रवो तो छे. परंतु स्वरूपमां ढळेली जे अनुभूति ते अनुभूतिथी तेओ भिन्न रही जाय छे माटे ते जीवना नथी, पुद्गलना परिणाम छे. अहो वस्तुनुं स्वरूप! अहो समयसार! एमां केटकेटलुं भर्युं छे, हें!
त्यारे कोई वळी एम कहे छे के (सोनगढमां) एकलुं समयसार शास्त्र ज वांचे छे. भाई! एमां दोष शुं छे? समयसार नाटकमां श्री बनारसीदासजीए शुं कीधुं छे? त्यां कह्युं छे केः-
जगतमां जिनवाणीनो प्रचार थयो अने घेर घेर समयसार नाटकनी चर्चा थवा लागी. हवे एनी चर्चा फेलाई एटले शुं अन्य शास्त्रो खोटां छे एम अर्थ छे? अन्य शास्त्रोनो प्रचार ओछो छे एटले ए खोटां छे एम ठरावाय? बापु! एम अर्थ न थाय. वळी त्यां ज आगळ एम लख्युं छे के रूपचंद आदि विवेकी पंडितो पांचेय एक स्थानमां बेसीने परमार्थनी ज चर्चा करता हता, बीजी कांई नहि-‘परमारथ चर्चा करै, इनके कथा न और.’ एथी शुं ए एकान्त थई गयुं? पण जेनी बुद्धि मलिन छे ते एने समजी शके नहि तो शुं थाय? भाई! समयसार ए तो दिव्यध्वनिनो सार छे.
१३. जे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र अने अंतरायरूप कर्म छे ते बधुंय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी अनुभूतिथी भिन्न छे. शुं कह्युं? के जीवने आठ कर्म नथी कारण के ते परद्रव्य छे. ते परद्रव्य केम छे? कारण के कर्मना संगे तेना तरफना वलणनो जे भाव हतो ते स्वद्रव्यनी अनुभूतिथी भिन्न पडी जाय छे माटे.
प्रश्नः– कर्म तो आत्माने रोके छे एम आवे छे ने?
उत्तरः– आत्माने कोण रोके? पोते (विकारमां) रोकाय छे त्यारे ‘कर्म रोके छे’