आपत्ति आवे छे; तो पछी बंध जेनुं मूळ छे एवुं जे पुद्गलकर्मना प्रदेशोमां स्थित थवुं, ते जेनुं मूळ छे एवुं परसमयपणुं, तेनाथी उत्पन्न थतुं (परसमय-स्वसमयरूप) द्विविधपणुं तेने (जीव नामना समयने) क्यांथी होय? माटे समयनुं एकपणुं होवुं ज सिद्ध थाय छे.
पामे छे. परंतु जीव नामना पदार्थनी अनादि काळथी पुद्गलकर्म साथे निमित्तरूप बंधअवस्था छे; ते बंधावस्थाथी आ जीवमां विसंवाद खडो थाय छे तेथी ते शोभा पामतो नथी. माटे वास्तविक रीते विचारवामां आवे तो एकपणुं ज सुंदर छे; तेनाथी आ जीव शोभा पामे छे.
हवे समयना द्विविधपणामां आचार्यदेव बाधा बतावे छे. आ गाथानुं मथाळुं छे. (पर्यायमां) एकपणुं (स्वसमयपणुं) न थतां द्विविधपणुं थवुं ते विसंवाद- असत्यपणुं छे एम कहे छे.
एकत्वनिश्चयने प्राप्त जे समय छे ते लोकमां बधे सुंदर छे. जयसेन आचार्यदेवे एकेन्द्रियथी मांडी बधा जीवो एक द्रव्यपणे (द्रव्ये एकपणे) होवाथी सुंदर छे एम सामान्यपणे कह्युं छे. अहीं कहे छे के एकत्वनिश्चयने प्राप्त-अर्थात् भगवान शुद्धस्वभावी चैतन्यघन प्रभु जे निज शुद्धात्मा एना एकत्वमां परिणमे एटले के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी पर्यायपणे परिणमे ते समय छे अने ते बधे सुंदर छे. तेथी एकत्वमां बीजानी साथे बंधनी कथा, निमित्तना संबंधनी कथा कहेवी ते विसंवाद छे, असत्य छे. विसंवाद एटले असत्य एम जयसेनाचार्ये अर्थ कर्यो छे.
भगवान आत्मा आनंदनो नाथ प्रभु, एनी साथे एकत्व परिणमन ते सुंदर छे- शोभास्पद छे. वस्तु सुंदर छे, अने तेनुं परिणमन पण सुंदर छे; केमके सम्यग्दर्शन -ज्ञान-चारित्ररूप परिणमनमां वस्तु जेवी सुंदर छे तेवी ख्यालमां आवे छे. एकलो आत्मा जे त्रिकाळद्रव्य छे ते त्रणे काळ सुंदर छे, भले एकेन्द्रियमां- निगोदमां होय तो पण सुंदर छे. अहीं तो एथी विशेष कहे छे के जे सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्रना परिणाममां आत्माना सुंदरपणाना स्वरूपनी हयातीनुं भान थयुं ते पण सुंदर छे, सत्य छे. वस्तु श्रद्धा-ज्ञानमां आवतां सुंदरतानी परिणति थई त्यारे तेने सुंदर कहेवामां आवे छे, एने ज सत्यार्थ कहेवामां आवे छे. त्रिकाळ, ध्रुव आत्मा सत्यार्थ तो छे ज, पण ए सत्यार्थने प्रतीति अने ज्ञानमां लीधां त्यारे तेने सत्यार्थ कहेवामां आवे छे.